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________________ 82 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 और बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता से प्राणी वासनाओं पर अधिशासन करने लगता है । वासनाओं के नियन्त्रण का यह प्रयास विवेक बुद्धि का स्वाभाविक लक्षण है और यहीं से प्राणीय विकास में स्वतन्त्रता का उदय होता है । यहाँ प्राणी नियति का दास न होकर उस पर शासन करने का प्रयास करता है, यहीं से चेतना की जड़ (कर्म) पर विजय यात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है । इस अवस्था में चेतन आत्मा और जड़ कर्म-संघर्ष के लिए एक दूसरे के सामने डट जाते हैं । जैन पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाता है । यथाप्रवृत्तिकारण की प्रक्रिया करने के पूर्व आत्मा जिन चार शक्तियों (लब्धियों) को उपलब्ध कर लेता है वे हैं—१ पूर्ववद्ध कर्मों में कुछ कर्मों का क्षीण हो जाना अथवा उनकी विपाक-शक्ति का शमन हो जाना, २ विशुद्धि, ३. देशना अर्थात् ज्ञानी जनों के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त करना और ४ प्रयोग अर्थात् आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति का एक क्रोडा-क्रोडी सागरोपम से कम हो जाना । जो आत्मा इस प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण नामक ग्रन्थिभेद की क्रिया को करने में सफल हो जाता है, वह मुक्ति की विजय यात्रा के योग्य हो जाता है और जल्दी या देर से उसे प्राप्त कर लेता है । जो सिपाही शत्रु सेना के सामने डटने का साहस कर लेता है, वह कभी न कभी तो विजय-लाभ कर ही लेता है । विजय यात्रा के अग्रिम दो चरण अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण कहे जाते हैं । वस्तुतः यथाप्रवृत्तिकरण में आत्मा वासनाओं को शक्ति के सामने संघर्ष के लिए खड़ा होने का साहस करता है, जबकि अन्य दो प्रक्रियाओं में वह वासनाओं और तद्जनित कर्मों के ऊपर विजयश्री का लाभ करता है । यथाप्रवृत्तिकरण की अवस्था में भी आत्मा अशुभ कर्मों का अल्प स्थिति का एवं रुक्ष बन्ध करता है । यह अवस्था नैतिक चेतना के उदय की अवस्था है । यह एक प्रकार की आदर्शाभिमुखता है । संघर्ष प्रारम्भ नहीं होता । (ब) अपूर्वकरण - यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्मा में नैतिक चेतना का उदय होता है; विवेक बुद्धि और संयम भावना का प्रस्फुटन होता है । वस्तुतः यथाप्रवृत्तिकरण में वासनाओं से किये जाने वाले संघर्ष के लिए पूर्वपीठिका तैयार होती है । आत्मा में इतना नैतिक साहस (वीर्योल्लास) उत्पन्न हो जाता है कि वह संघर्ष की पूर्व तैयारी कर वह वासनाओं से होने वाले युद्ध के लिए शत्रु के सामने आ कर डट जाता है और कमी-कभी शत्रु को युद्ध के लिए ललकारने का भी प्रयास करता है । लेकिन वास्तविक अनेक बार तो ऐसा भी प्रसंग आता है कि वासना रूपी शत्रुओं के प्रति मिथ्या मोह के जागृत हो जाने से अथवा उनकी दुर्जयता के अचेतन भय के वश अर्जुन के समान यह आत्मा पलायन या दैन्यवृत्ति को ग्रहण कर मैदान से भाग जाने का प्रयास करता है । लेकिन जिन आत्माओं में वीर्योल्लास या नैतिक साहस की मात्रा का विकास होता है । वे कृतसंकल्प हो संघर्ष - रत हो जाते हैं और वासना रूपी शत्रुओं के राग और द्वेष रूपी सेनापतियों के व्यूह का भेदन कर देते हैं । राग-द्वेष के व्यूह के भेदन करने की क्रिया को ही अपूर्वकरण कहा जाता है । राग और द्वेष स्वरूपी शत्रुओं के सेनापतियों के परास्त हो जाने से आत्मा जिस आनन्द का लाभ करता है, वह सभी पूर्व अनुभूतियों से विशिष्ट प्रकार या अपूर्व होता है । विकासगामी आत्मा को प्रथम बार ही ऐसी अनुभूति होती है, इसलिए यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कही जाती है । इस अपूर्वकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कार्य राग और द्वेष की ग्रन्थियों का छेदन करना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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