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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 81
तीन प्रहरी लगा रखे हैं प्रथम द्वार पर निशस्त्र प्रहरी है, दूसरे द्वार पर सशस्त्र सबल और दुर्जेय प्रहरी है और तीसरे द्वार पर पुनः निशस्त्र प्रहरी है । वहाँ जाकर आत्मा को मुक्त कराने के लिये इन तीन द्वारों के प्रहरियों पर विजय-लाभ करते हुए गुजरना होता है । ये तीन द्वार हो तीन ग्रन्थियाँ हैं और इनपर विजय-लाभ करने की प्रक्रिया ग्रन्थि-भेद कहलाती है । इन्हें क्रमश: १ - यथा प्रवृतिकरण, २- अपूर्वकरण और ३ – अनिवृत्तिकरण कहते हैं ।
(अ) यथाप्रवृत्तिकरण' - पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख संवेदना जनित अत्यल्प आत्मशुद्धि को जैन शास्त्र में यथाप्रवृतिकरण कहते हैं । यथाप्रवृति करण बन्दीगृह का वह द्वार है, जिसपर निर्बल एवं निःशस्त्र द्वारपाल होता है । अनेक आत्माएँ इस संसार रूपी वन में परिभ्रमण करते हुए संयोगवश इस द्वार के समीप पहुँच जाती हैं और यदि मन नामक अस्त्र से सुसज्जित होती हैं तो इस निर्बल एवं निःशस्त्र द्वारपाल को पराजित कर इस द्वार में प्रवेश पा लेती हैं ।
यथा प्रवृतिकरण प्रयास और साधना का परिणाम नहीं होता है, वरन एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण घटना है । क्योंकि आत्म-शक्ति के प्रकटन को रोकने वाले या उसे कुण्ठित करने वाले कर्मवगंणा के काल स्थिति मोह-कर्म की ७० क्रोड़ा क्रोड़ी सागरोपम मानी गई है
जब गिरी नदी पाषाण न्याय से घटकर मात्र १ क्रोडा क्रोडी सागरोपम रह जाती है, तब यथाप्रवृतिकरण होता है । अर्थात् जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पाषाण- खण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही गोल आकृति को धारण कर लेता है, वैसे शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की संवेदना को झेलते-झेलते इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जब कर्मावरण का बहुतांश शिथिल होता है तो आत्मा को यथाप्रवृतिकरण रूप शक्ति प्राप्त हो जाती है । यथाप्रवृतिकरण वस्तुतः एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में स्वनियंत्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है । जिस प्रकार एक बालक प्रकृति से ही चलने की शक्ति पाकर फिर उसी शक्ति के सहारे वांछित लक्ष्य की ओर प्रयाण कर उसे पा सकता है, वैसे ही आत्मा मी स्वभाविक रूप में स्वनियंत्रण की क्षमता को प्राप्त कर आगे यदि प्रयास करे तो आत्मसंयम के द्वारा आत्मलाभ कर लेता है । यथाप्रवृतिकरण अर्ध-विवेक को अवस्था में किया गया आत्मसंयम है, जिससे व्यक्ति तीव्रतम ( अनन्तानुबंधी ) क्रोध, मान, माया एवं लोभ पर अंकुश लगाता है । जैन दर्शन के अनुसार केवल पंचेन्द्रिय समनस्क ( मन सहित ) प्राणी ही यथाप्रवृतिकरण करने की योग्यता रखते हैं और प्रत्येक समनस्क प्राणी अनेक बार यथाप्रवृति करता भी है, क्योंकि जब प्राणी मन जैसी नियंत्रक शक्ति को पा लेता है तो स्वाभाविक रूप से ही वह उसके द्वारा अपनी वासनाओं पर नियंत्रण का प्रयास करने लगता है । प्राणीय विकास में मन की उपलब्धि से ही बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता जागृत होती है ।
परमाणुओं में सर्वाधिक और यह काल स्थिति
१. दिगम्बर मान्यता में इसे 'अथाप्रवृति करण' कहते हैं- देखिये तत्वार्थराज वार्तिक
६।१।१३ ।
२. दर्शन और चिन्तन पृ० २६९ ।
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