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________________ VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No, 3 लक्ष्य का बोध हो जाता है तो फिर वह स्वशक्ति से इस चारित्र मोह को भी परास्त कर स्वरूप लाभ या आदर्श की उपलब्धि कर ही लेता है । 80 जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा को स्वस्वरूप लाभ या आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिये दर्शन मोह और चारित्र मोह से संघर्ष करना होता है । अशुभ वृत्तियों से संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है । इसी संघर्ष से आत्मा की विकास एवं विजय की यात्रा प्रारम्भ होती है । आत्मा अपने स्वभाव से ही विकास के लिये प्रयत्नशील रहता है फिर भी इस संघर्ष में वह सदैव ही जय लाभ नहीं करता है वरन् कभी-कभी परास्त होकर पुन: पतनोन्मुख हो जाता है । दूसरे इस संघर्ष में सभी आत्माएँ विजय लाभ नहीं कर पाती हैं, कुछ आत्माएँ संघर्ष विमुख हो जाती हैं तो कुछ इस आध्यात्मिक संघर्ष के मैदान में डटी रहती है और कुछ विजय लाभ कर स्वस्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं । विशेषावश्यक भाष्य में इन तीनों अवस्थाओं को निम्न उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। तीन प्रवासी अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे मार्ग में भयानक अटवी में उन्हें चोर मिल गये । चोरों को देखते ही उन तीनों में से एक भाग खड़ा हुआ, दूसरा उनसे डर कर भागा तो नहीं लेकिन संघर्ष में विजय लाभ न कर सका और परास्त होकर उनके द्वारा पकड़ा गया । लेकिन तीसरा असाधारण बल और कौशल्य से उन्हें परास्त कर आगे अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया । विकासोन्मुख आत्मा ही प्रवासी है, अटवी मनुष्य जीवन है तथा राग और द्वेष यह दो चोर हैं । जो आत्माएँ इन चोरों पर विजय लाभ करती है, वही अपने गंतव्य को प्राप्त करने में सफल हो जाती है । यहाँ पर हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्र मिलता है एक वे जो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना से युद्ध स्थल पर आते तो हैं, लेकिन साहस के अभाव में शत्रु को चुनौती न देकर साधना रूपी युद्धस्थल से भाग खड़े होते हैं, दूसरे वे जो साधना रूपी युद्ध क्षेत्र में डटे रहते हैं, संघर्ष भी करते हैं, लेकिन फिर भी साहस के अभाव में शत्रु पर विजय लाभ करने में असफल होते हैं और तीसरे वे जो साहस पूर्वक प्रयास करते हुए साधना के क्षेत्र में विजयश्री का लाभ करते हैं । कुछ साधक साधना का प्रारम्भ ही नहीं कर पाते, कुछ उसे मध्य में ही छोड़ देते हैं, लेकिन कुछ उसका अन्त तक निर्वहन करते हुए अपने साध्य को प्राप्त करते हैं । लक्ष्य की उपलब्धि यह प्रक्रिया जैन साधना में ग्रन्थिभेद कहलाती है । ग्रन्थिभेद का तात्पर्यं आध्यात्मिक विका में बाधक प्रगाढ़ मोह एवं राग द्वेष की वृत्तियों का छेदन करने से है । आध्यात्मिक विकास प्रक्रिया और ग्रन्थि भेद लेकिन इसके लिए मोह स्थित होना है। आवरित है । से जैन नैतिक साधना का लक्ष्य स्वस्वरूप में विजय आवश्यक है । आत्मा का शुद्ध स्वरूप मोह मोह के आवरण को दूर करने के लिए साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेद करना होता है । एक सरल उदाहरण द्वारा इस तथ्य को इस प्रकार समझाया जा सकता है । आत्मा पर मोह का आधिपत्य है, मोह ने आत्मा को बन्दो बना रखा है । उस बंदीगृह के तीन द्वारों पर उसने अपने १. विशेषावश्यक भाष्य - गाथा १२११-१२१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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