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86 VAISHALÍ İNSTİTUTE RESEARCH BULLETIN No. ģ रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएं होती हैं, जो रागद्वेष के तीब्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं, वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होतीं, तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यधपि ऐसी आत्माओं को आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्याहृष्टि ही कहा जाता है । तथापि मिथ्यात्व की मन्दता की इस अवस्था को मार्गाभिमुख गुण के कारण उपादेय माना गया है । आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किये हैं, जिन्हें क्रमशः मित्रा, तारा, बला और दीपा कहा गया है। यद्यपि इन वर्गों में रखने वाली आत्माओं की दृष्टि मिथ्या होती है, तथापि उनमें मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती है, जो अन्य आत्माओं में होती है । मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में आत्मा पूर्ववणित यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यक्दृष्टित्व नाम चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है।
२) सास्वादन-गुणस्थान-यद्यपि सास्वादन-गुणस्थान प्रथम मिथ्या दृष्टि गुणस्थान की अपेक्षा से विकासात्मक कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुतः यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। कोई भी आत्मा इससे प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आता वरन् जब आत्मा ऊपर की गुण स्थान श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुण स्थान की ओर आता है, तो इस अवस्था से गुजरता है। पतनोन्मुख आत्मा को, प्रथम गुण स्थान तक पहुंचने की मध्यावधि में जो क्षणिक (६ अवली) समय लगता है, वही इस गुण स्थान का स्थितिकाल है। जिस प्रकार वृक्ष के फल को वृक्ष से टूट कर पृथ्वी पर पहुँचने में समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा को चतुर्थ से प्रथम गुणस्थान की ओर गिरावट में जो समय लगता है, उसे सास्वादन गुणस्थान के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार मिष्ठान्न भोजन के अनन्तर वमन होने पर वमन के समय एक विशेष प्रकार के स्वाद का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः मिथ्यात्व को ग्रहण किया जाता है तो उसे ग्रहण करने के पूर्व की क्षणिक अवस्था में उस यथार्थता के एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव होता है। यही यथार्थता का क्षणिक आभास सास्वादन गुणस्थान है।
(३) मिश्र गुणस्थान (ढुलमुलयकोन) - यह गुणस्थान भी विकास श्रेणी का सूचक नहीं होकर पतनोन्मुख अवस्था का ही सूचक है। इसमें आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आता है। यद्यपि उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है, यदि उसने पूर्व में कभी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो। जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ बोध को प्राप्त कर पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करते हैं, वे आत्माएँ अपने उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आते हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व (यथार्थ बोध) का स्पर्श नहीं किया होता है, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाते हैं। क्योंकि संशय उसे हो सकता है, जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थता के बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त
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