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शून्य-अद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में 77 तदुत्पत्ति सम्बन्धी उत्पादादि का ज्ञान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर ज्ञान के समान उत्पादादि के सत्त्व होने का भी प्रसंग आता है। तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं बनता है, क्योंकि उत्पादादि आकारों को नि:स्वभाव होने पर उसमें जन्यत्व और जनकत्व असम्भव है । अतः सम्बन्ध न होने के कारण ज्ञान के द्वारा उत्पादादि का संवेदन कैसे हो सकता है ? जिसका जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है, उसके संवेदन होने पर नियम से उसका संवेदन नहीं होता है, जैसे ज्ञान का संवेदन होने से कूर्म-रोमों का संवेदन नहीं होता है। असत्त्वभूत उत्पादि आकारों का ज्ञान के साथ न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है। ज्ञान का संवेदन होने पर उत्पादादि का नियम से संवेदन होता है। अतः उनका ज्ञान के साथ जो भी सम्बन्ध है, वह परमार्थ सत्त्व के बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार उन उत्पादादि का परमार्थ सत्त्व सिद्ध होता है। जिसके संवेदन होने पर जिसका नियम से संवेदन होता है वह उससे सम्बद्ध होता है तथा परमार्थ सत् भी होता है, जैसे ज्ञान का संवेदन होने पर उसका खरूप । ज्ञान का संवेदन होने पर नियम से उत्पादादि का तथा उत्पादादियुक्त अर्थों का संवेदन होता है । संवेद्यमान पदार्थों को भी असत्त्व माना जाय तो फिर ज्ञान के स्वरूप में भी असत्व मानना पडेगा और ऐसा मानने पर सकलशन्यता माननी पड़ेगी, जिसका निराकरण कर दिया गया है । अतः शून्य-अद्वैतवाद ठीक नहीं है ।
१. वही।
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