SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धांत. एक तुलनात्मक अध्ययन _ डॉ० सागरमल जैन जनदर्शन में आध्यात्मिक या नैतिक विकास के विभिन्न स्तरों का विवेचन उपलब्ध है । लेकिन हमें यह स्मरण रखना होगा कि इन विभिन्न उच्चावच स्तरों का विवेचन व्यवहार दृष्टि या पर्यायदृष्टि से ही किया गया है। पारमार्थिक दृष्टि से तो आत्मा सदैव ही स्वस्वरूप में स्थित है, उसमें विकास की कोई प्रक्रिया नहीं होती है वह तो विकास और पतन से निरपेक्ष है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं आत्मा गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान नामक विकासपतन की प्रक्रियाओं से भिन्न है।' इसी बात का समर्थन डॉ० रमाकांत त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक "स्पीनोजा इन दी लाइट आफ वेदान्त" में किया है। वे लिखते हैं कि "आध्यात्मिक मुलतत्त्व न तो विकास की स्थिति में है और न प्रयास की स्थिति में है।"२ लेकिन जैन विचारणा में तो व्यवहार दृष्टि या पर्याय दृष्टि भी उतनी ही यथार्थ है, जितनी कि परमार्थ दृष्टि या निश्चय दृष्टि समस्त आचार दर्शन ही व्यवहार नय का विषय है और इसलिए नैतिक विकास भी व्यवहार नय का विषय होगा, लेकिन उसके व्यवहार नय का विषय बनने से उसकी यथार्थता में कोई कमी नहीं होती है, आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास का प्रत्यय भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी आत्मपूर्णता की धारणा । जैन दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधना का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों में होकर गुजरना होता है । श्रेणियां साधक की साधना की ऊंचाइयों की सूचक हैं। लेकिन साधनात्मक जीवन तो एक मध्य अवस्था है, उसके एक ओर अविकाश की अवस्था है और दूसरी ओर पूर्णता की अवस्था है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने आत्मा की तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है-१. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा । आत्मा की इन तीनों अव १. णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । नियमसार ७७ । २. Spinoza in the Light of vedanta P 99. ३. (अ) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवल ज्ञानादि. परिणमस्तु परमात्मा । अध्यात्ममतपरीक्षा १२५ (ब) बाह्यात्मा चान्तरात्मा च, परमात्मेति च त्रयः । कायाधिष्ठायकध्येयाः प्रसिद्धाः योग वाङ्मये ।। अन्ये मिथ्वात्वसम्यवत्वकेवलज्ञानमागिनः । मिश्रे च क्षीणमोहे ज, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि ॥ योगावतारद्वात्रिशिका १७,१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy