SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 76 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 होने से उनका संवेदन नहीं होता है। पदार्थों में उत्पाद आदि धर्म को सर्वथा असत् माना गया है, अतः उनका भी संवेदन नहीं हो सकता है। इस प्रकार सिद्ध है कि शून्यवादी बौद्धों की यह मान्यता ठीक नहीं है कि अर्थ उत्पादादि धर्मविहीन होते हैं। यह कथन भी ठीक नहीं है कि मरीचिका चक्र में जल में असत्त्व में भी संवेदन सम्भव होने से अनेकान्त (व्यभिचारी) है। क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और आकार रूप से असत्त्व सर्वथा असत्त्व कहा जाता है और इस प्रकार का असत्त्व मरीचिकाचक्र में जल का नहीं है । सदृश्य रूप नीमितरङ्ग आदि आकार के द्वारा वहाँ जल संभव है। यदि ऐसा न माना जाय तो काष्ठ, पाषाणादि की तरह मरीचिकाचक्र में भी जल के संवेदन की उत्पत्ति नहीं होती । असत् उत्पादादि का संवेदन मुख्य है या गौण प्रभाचन्द्र एक यह भी प्रश्न करते हैं कि यदि असत् उत्पादादि का संवेदन मान भी लिया जाता है तो उन्हें यह भी बतलाना होगा कि वह मुख्य है या गौण ? असत् उत्पादादि का संवेदन मुख्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मुख्य संवेदन ज्ञान का ही स्वात्मभूत असाधारण धर्म है, अज्ञान रूप उत्पादादि का वह धर्म कैसे हो सकता है । अनुमान से भी यह सिद्ध होता है—'जो अज्ञानरूप है, उसका मुख्य संवेदन नहीं होता है, जैसे शशशृंगादि असत्त्व रूप से माने गये उत्पादादि धर्म मी अज्ञान रूप हैं, अतः उनका संवेदन मुख्य नहीं हो सकता । असत्त्व रूप उत्पादादि का गौण संवेदन भी नहीं हो सकता है, क्योंकि स्वाकारनिर्मासि ज्ञान का उत्पादन करना ही गौण संवेदन कहलाता है। वह अश्व विषाण के समान असत् उत्पादादि में संभव नहीं है, क्योंकि असत्त्व सर्वसामार्थ्यरहित (विरह रूप) होता है। जो सर्वसामर्थ्य से रहित होता है, उसका गौण संवेदन नहीं होता है, जैसे घोड़े के सींग का संवेदन नहीं होता है। उत्पादादि का ज्ञान के साथ क्या सम्बन्ध है ? जैन तर्कशास्त्री प्रभाचन्द्र वादिदेव सूरि प्रभृति एक यह भी प्रश्न करते हैं कि उत्पादादि का ज्ञान के साथ क्या सम्बन्ध है। दो सम्बन्ध हो सकते हैं -- तादात्म्य सम्बन्ध अथवा १. (क) यस्य येन सम्बन्धो नास्ति तस्मिन् संवेद्यमानो नासो नियमेन संवेद्यते ।"स्या० र०, पृ० १८८। (ख) यथा दुःखे सुखम् नीलाकारे वा पीताकारः, सर्वथाऽप्यसन्तश्चोत्पादादयो धर्मा अथेष्विति । न्या० कु० च०, पृ० १३६ । २. ननु मरीचिकाचक्रे जलस्याऽसत्त्वेऽपि संवेदनसंभवात् अनेकान्तः, इत्यसत्; तत्र तस्य सर्वथाऽअसत्त्वस्याऽसंभवात् । -न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १३६ । ३. वही । ४. अस्तु वा असतामम्येषां संवेदनम्: तथापि मुख्यम् गौणं वा तत् स्यात् ? वही । ५. किञ्च, उत्पादादीनां ज्ञानेन सार्द्ध कः सम्बन्धः येन तस्मिन् संवेद्यमाने नियमेन ते संवेद्येरन् किं तादात्म्यम्, तदुत्पत्तिर्वा ?--वही पृ० १३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy