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________________ शून्य-अद्वैतवाद को ताकिक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में 75 भी असत्य (मिथ्या) है। यदि कहा जाय कि प्रतिभास समान होने पर भी प्रतीति होने से ज्ञानस्वरूप का प्रतिभास सत्य है तो इसके प्रत्युत्तर में प्रभाचन्द्र का कहना है कि इसी प्रकार प्रत्यत्व समान होने पर जाग्रत अवस्था में बाह्य अर्थ प्रत्ययों को सत्य मानना चाहिए। प्रभाचन्द्र शून्य-अद्वैत के इस अनुमान को “पदार्थ एक और अनेक का विचार सहन नहीं करते हैं" दूषित सिद्ध करते हुए कहते हैं कि विचार असह्यत्व हेतु सर्वथा असिद्ध है। क्योंकि आत्मा आदि पदार्थों में एक और अनेक स्वरूप का विचार किया जाता है । अतः वहाँ (आत्मादि में) एकानेक स्वरूप विचार सहत्त्व रूप हेतु पाया जाता है । अर्थ उत्पादादि धर्मरहित नहीं है-शून्य-अद्वैतवादियों का यह कथन ठीक नहीं है कि अर्थ में उत्पाद-व्यय आदि धर्म नहीं होते हैं। क्योंकि द्रव्य रूप से सत् पदार्थों में और पर्याय रूप से असत् पदार्थों में उत्पादादि धर्मों का सद्भाव पाया जाता है। सर्वथा सत् और सर्वथा असत् पदार्थों में उत्पादादि धर्म नहीं होते हैं। यदि यह माना जाय कि उत्पाद आदि धर्म पदार्थों में सर्वथा नहीं पाये जाते हैं, तो उनमें अर्थ क्रिया न होने से असत् हो जायेंगे। एक दोष यह भी है कि यदि उत्पादादि सर्वथा असत् हैं तो वे विशद् प्रतिभास के विषय कैसे होते हैं, यह भी शून्याद्वैतवादी को बतलाना होगा। क्योंकि जो सर्वथा असत् होता है, वह विशद प्रतिमास के विषय नहीं होते हैं जैसे आकाशकुसुम असत् है, इसलिए उसका प्रतिभास नहीं होता है। यदि इस दोष से बचने के लिए यह माना जाय कि उत्पादादि का विशद् प्रतिभास होता है तो उन्हें सर्वथा असत् उसी प्रकार नहीं कहा जा सकता है जिस प्रकार संवित्ति (ज्ञान) का स्वरूप विशद् प्रतिभास का विषय होने से वह सर्वथा असत नहीं है। सूवर्ण आदि में कटक आदि उत्पादधर्म का विषद् प्रतिभास होना प्रसिद्ध है। यदि सुवर्ण आदि में वे सर्वथा असत् हैं तो उनका संवेदनमात्र भी नहीं हो सकता है । जो जहाँ सर्वथा असत् है, उसका वहाँ संवेदन नहीं होता है, जैसे दुःख में सुख का और नीलाकार में पीताकार का सर्वथा असत् १. तथा हि-यत् प्रतिभास ते तन्मिथ्या यथा अर्थ, प्रतिभासते च विज्ञानस्वरूपमिति । न्या० कु० च०, पृ० १३५ । २. वही, पृ० १३६ । ३. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य न्या० कु० च०, पृ० १३६ । अष्टसहस्री, पृ० ९१ । __ और स्या० र०, पृ० १८७ । ४. उत्पादिधर्म'; तदप्यसाम्प्रतम्;"| (क) न्या० कु० च०, पृ० १३६ । (ख) द्रव्यरूप तया सतां पर्याय रूपतया चासतां भावानामुत्पादादिधर्मसद्भावोपपत्तेः। स्या० र०, पृ० १८७ । ५. (क) न्या० कु० च०, पृ० १३६ । (ख) स्या० र०, पृ० १८८ । ६. वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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