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________________ 24 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 वादिदेव सूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में इसकी विशद मीमांसा की है। वे कहते हैं कि स्वप्न दो प्रकार के होते हैं-सत्य और असत्य । उनमें पहला देवताविशेषकृत अथवा धर्म-अधर्मकृत होता है, जो साक्षात् अर्थ का अव्यभिचारी होता है, अर्थात् सत्य स्वप्न में देखे गये अर्थ और प्रत्यक्ष अर्थ में अन्तर नहीं होता है, इसलिए जिस देश, काल और आकार रूप से अर्थ प्रतिपन्न (जाना जाता है उसी देश, काल और आकार रूप से जाग्रत अवस्था में उसकी प्राप्ति होती है। कोई स्वप्नपरम्परा से अर्थ का अव्यभिचारी होता है, अर्थात् राजा आदि के दर्शन से स्वप्न-अध्याय में कथित अर्थ कुटुम्ब की वृद्धि आदि होती है। किसी स्वप्न के व्यभिचारी होने से सब स्वप्नों को व्यभिचारी नहीं माना जा सकता है। ___ वात, पित्त आदि के उपद्रव से होने वाला स्वप्न असत्य होता है, ऐसी लोकप्रसिद्धि है तो भी वह अर्थमात्र का व्यभिचारी नहीं होता है। एक बात यह भी है कि कोई भी ज्ञान सत्तामात्र का व्यभिचारी नहीं होता है, यदि ऐसा होने लगे तो ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी। अतः विषय का व्यभिचारी होने से ही असत्य है । इसके अतिरिक्त शून्य-अद्वैतवादी बौद्ध ने स्वप्न अवस्था में बोध (ज्ञान) नहीं माना है, इसलिए उसे दृष्टान्त नहीं बनाया जा सकता है। यदि स्वप्न में बोध माना जाय तो साध्य, साधन और धर्मग्राहक प्रत्यय के निरालम्बन होने पर दृष्टान्त भी साध्य, साधन और उभय विकल (रहित) हो जायेगा। दूसरा दोष यह आयेगा कि दृष्टान्त ग्राहक प्रत्यय के निरालम्बन होने पर दृष्टान्त असत् हो जायेगा और प्रत्ययत्व हेतु अन्वयरहित हो जायेगा। इस प्रकार सब प्रत्ययों को सिद्ध करने के लिए साधनविषयक प्रत्ययत्व हेतु को सालम्बन मानना पड़ेगा अन्यथा साध्य की सिद्धि नहीं होगी। स्वप्न के दृष्टान्त से सम्पूर्ण प्रत्ययों में मिथ्यात्व मानने पर ज्ञान-स्वरूप को भी मिथ्यात्व मानना पड़ेगा। अनुमान से भी उक्त कथन सिद्ध होता है। जैसे जो प्रतिभासित होता है वह मिथ्या है, जैसे अर्थ-विज्ञान का स्वरूप भी प्रतिभासित होता है। इसलिए वह १. (क) विद्यानन्द : प्रमाणपरीक्षा, सं० डॉ० दरबारीलाल कोठिया,पृ० १६ । (ख) प्रमाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १३५ । (ग) वादिदेव सूरि, पृ० १८६ । २. तत्र सत्यो देवताकृतः स्यात् धर्माधर्मकृतो वा,"" । तदुक्तम् -- यस्तु पश्यति रात्र्यन्ते राजानं कुञ्जरं हयं । सुवर्ण वृषभं गां च कुटुम्बं तस्य वर्धते ॥ प्र० प०, पृ० १६ । और भी देखें न्या० कु० च०, १३५ । स्या० २०, पृ० १८६ । ३. न हि किञ्चिज्ज्ञानं सत्तामात्रं व्यभिचरति तस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात्, विशेषं तु यत एवं व्यभिचरति अत एव असत्यः। वही। ४. प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधश्च, सर्वप्रत्ययानां निरालम्बनत्वे साध्ये हेतूपादाने तत्प्रत्ययत्वस्य सालम्बनत्वाऽभ्युपगमात्, अन्यथा किं साधनः साध्यमयं साधयेत् । (क) न्या० कु० च०, पृ० १३५ । (ख) स्या० र०, पृ० १८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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