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शून्य अद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में
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एक बात यह भी है कि एक में अनेकाकारता नहीं मानने से ज्ञान में प्रति आकार की अपेक्षा से सन्तानान्तर की तरह भेद हो जायेगा । उन आकारों का नीलाकार रूप से उपलम्भ न होने से उसी की तरह असत्त्व हो जायेगा |
विद्यानन्द अष्टसहस्री में कहते हैं कि नीलांश का भी प्रतिपरमाणु के भेद से नील अणु के संवेदनों को परस्पर में भिन्न होना चाहिये और उन सबका एक नीलाणु संवेदन से उपलंभ न होने के कारण असत्व हो जायेगा । एक नीलाणु का संवेदन भी वेद्य, वेदक और संवित्ति रूप आकार के भेद से तीन रूप होगा। चूँकि उस प्रकार के तत्त्व की उपलब्धि न होने से अभाव का प्रसंग होगा । इसलिए ऐसा मानना चाहिये कि अन्तरंग और बहिरंग एक और अनेक रूप प्रतिभासित होने वाली वस्तु है । प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र में भी यही कहा है ।
सब प्रत्यय निरालम्बन नहीं है— शून्य - अद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि सब प्रत्यय निरालम्बन स्वरूप है । क्योंकि जागृत प्रत्ययों की प्रतीति स्वरूप से व्यतिरिक्त स्थिर, स्थूल, साधारण रूप स्तंभ, कुम्भादिक अर्थों की प्रत्यक्ष से प्रतीति होती है । इस प्रकार प्रत्ययत्व हेतु 'अश्रावणः शब्द सत्तत्वात्' इत्यादि की तरह प्रत्यक्ष से बाधित है | अतः कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास से दूषित है । यह प्रत्ययत्व हेतु असिद्ध भी है, क्योंकि शून्य-अद्वैत ने इसे स्वीकार नहीं किया है । इसी प्रकार आश्रय सिद्धता भी है, क्योंकि ग्राहक प्रमाण भी प्रत्यय है और प्रत्यय होने से निरालम्बन है । अतः उसके द्वारा आश्रय की सिद्धि नहीं हो सकती है । हेतु स्वरूपासिद्ध भी है, क्योंकि हेतु के स्वरूप का ग्राहक प्रत्यय भी उक्त प्रकार से निरालम्बन है । उक्त दोषों को दूर करने के लिए यदि पक्षादि के ग्राहक प्रत्यय को आलम्बन माना जाय तो प्रत्ययत्व हेतु उसी के द्वारा अनैकान्तिक हो जाता है । इसी प्रकार हेतुविरुद्ध भी हो जाता है । आवलम्बन के होने पर ही प्रत्ययों में प्रत्ययत्व बन सकता है । जिनके द्वारा स्वरूप और पररूप की प्रतीति होती है, वे प्रत्यय कहलाते हैं । और उनके भाव को प्रत्ययत्व कहते हैं । उस प्रत्यक्ष की व्याप्ति निरालम्बनत्व के विरुद्ध सावलम्बनत्व के साथ होने से हेतु - विरुद्ध है ।
दृष्टान्त साध्यविकल है— शून्य- अद्वैतवादियों के लिए जो स्वप्न का दृष्टान्त दिया था, वह ठीक नहीं है । अवलम्बन से होते हैं । विद्यानन्द ने प्रमाण-परीक्षा में,
प्रत्ययों को निरालम्ब सिद्ध करने के क्योंकि स्वप्नादि प्रत्यय बाह्यार्थ के प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र में और
९. वही ।
२. नन्वेदं नीलवेदनस्यापि संविद्वै तविद्विषाम् ।
विद्यानन्दः अ० स० पृ० ७७ । प्रभाचन्द्र: प्र० क० । पृ० ९७ ।
३. यदि च एकस्या अनेकाकारता नेष्यते तथा विधं वस्तु प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम् ।
न्या० कु च० पृ० १३४ ।
४. (क) न्याय कु० च० पृ० १३५ । (ख) स्या० २०, पृ० १८४ ।
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