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________________ 72 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETÍN No. 3 नीलादि के प्रतिभास को अविद्या से उत्पन्न माना जा सकता है, सर्वत्र नहीं । जैसे मरीचिका में जल का प्रतिमास अथवा रजत में शुक्तिका का प्रतिभास अविद्याप्रभव है; लेकिन सत्य जल में जल का और रजत में रजत का प्रतिभास अविद्याप्रसूत नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि बाधक का स्वरूप भी सिद्ध नहीं है । अतः नीलादि का प्रतिभास बाध्यमान होने से अविद्याजन्य नहीं है । अर्थक्रियाकारित्व का अभाव होने से नीलादि का प्रतिभास अविद्याप्रभव नहीं हैमाध्यमिक बौद्ध का यह कथन भी ठीक नहीं कि नीलादि पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं होती है इसलिए उनका प्रतिभास अविद्याजन्य है । क्योंकि उनमें अर्थक्रियाकारित्व का अभाव सिद्ध नहीं होता है । जल, अग्नि आदि प्रतिभास के विषयभूत अर्थ स्नान, पान, पाक आदि अर्थं क्रिया करते ही हैं । यदि स्वरूपानुभव को अर्थक्रिया माना जाय तो ज्ञानगत नीलादि आकारों में स्वरूपानुभव है ही । बाह्य अन्तरंग में अनेकाकार अर्थ के अलावा निराकार मध्य क्षण रूप संविन्मात्र का अनुभव कभी भी नहीं होता I यदि माध्यमिक कहें कि नीलादि आकार का अनुभव मिथ्या है तो विद्यानन्द, वादिदेव और प्रभाचन्द्र कहते हैं कि एक और अनेक स्वभाव वाली संवित्ति और नीलादि आकार में समान प्रतिभास होने पर भी वास्तव और अवास्तव का विवेक कैसे होगा । इस पर यदि शून्यअद्वैतवादी यह कहें कि एकाकार का अनेकाकार के साथ विरोध होने के कारण नीलादि आकार अवास्तव है तो इसके प्रत्युत्तर में प्रभाचन्द्र कहते हैं कि इस प्रकार एकाकार में ही अवास्तवत्व क्यों नहीं हो जायेगा । शून्य - अद्वैतवादियों का यह कथन भी सत्य नहीं है कि स्वप्न ज्ञान में अनेकाकार के अवास्तव होने से चित्रज्ञान में भी वह अवास्तव है; नहीं तो फिर केशादि में एकाकार को अवास्तव होने से चित्रज्ञान में भी वह अवास्तव क्यों नहीं होगा । जिस प्रकार अनेकाकार का एकाकार से अभेद मानने पर अनेकत्व में विरोध आता है और भेद मानने पर संवेदनान्तर का प्रसंग होता है, उसी प्रकार एकाकार का भी अनेकाकार से अभेद मानने पर उसमें अनेकत्व प्राप्त होता है और भेद मानने पर संवेदनान्तर का प्रसंग होता हैं । १. (क) न्या० कु० च० पृ० १३३ - १३४ ॥ (ख) स्या० २०, पृ० १८३ । २ . वही । ३. (क) कथमेकानेकाकारयोः प्रतिभासाविशेषेपि वास्तवेतरत्वप्र विवेक : ? एकाकारस्यानेकाकारण "विरोधात्तस्यावास्तवत्वे कथमेककारस्यैवावास्तवत्वं न स्यात् । विद्यानन्द : अष्टसहस्री, पृ० ७६ । (ख) अथ नीलाद्यनेकाकारानुभवो मिथ्या न स्यात् । प्रभाचन्द्र : न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १३४ । (ग) किं च संविन्नीलाद्याकारयोरेकानेकस्वभावयोः प्रतिमासाविशेषेऽपि कुतः सत्येतरत्व - प्रविभागः किन्न भवेत् । वादिदेव सूरि : स्या० २०११६, पृ० १८४ । ४. वही और भी देखें प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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