SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शून्य-अद्वैतवाद की ताकिक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में 69 (क) क्या प्रमाण और प्रमेय के ग्राहक प्रमाण का अभाव होने से ? अथवा (ख) प्रमाणप्रमेय को अनुपलब्धि होने से ? अथवा (ग) विचार से ? अथवा (घ) प्रसंग से ? प्रमाण और प्रमेय के ग्राहक प्रमाण का अभाव शून्यता नहीं है-प्रमाण और प्रमेय को ग्रहण करने वाले प्रमाण का अभाव होने से सकलशून्यता सिद्ध नहीं होती है । ऐसा मानने पर भी जिज्ञासा होतो है, प्रमाण-प्रमेय को जानने वाले प्रमाण के अभाव का तात्पर्य क्या है ? क्था दुष्ट इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले संशय आदि ज्ञान अथवा ज्ञान का उत्पन्न नहीं होना ? प्रथम विकल्प मानने से शून्याद्वैतवाद नष्ट हो जायेगा --प्रमाण-प्रमेय को जानने वाले प्रमाण के अभाव का अर्थ दुष्ट इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले संशय आदि का होना नहीं है । क्योंकि संशय सद्भाव मानने पर सकलशून्यता का अभाव सिद्ध हो जायेगा। दूसरे शब्दों में जब संशय आदि का अस्तित्व मान लिया तो शून्य-अद्वैत कहाँ रहा । अब यदि यह माना जाय कि प्रमाण-प्रमेय को जानने वाले प्रमाण के अभाव का तात्पर्य ज्ञान का अनुत्पाद मानने पर प्रश्न होता है कि ज्ञात होकर सबके अभाव का ज्ञान कराता है अथवा अज्ञात होकर ही । अज्ञात होकर तो वह सबके अभाव का ज्ञान नहीं करा । जो अभाव है वह ज्ञात होकर ही अन्य के अभाव का ज्ञान कराता है। जैसे-कहीं धूम का अभाव अग्नि के अभाव का ज्ञान कराता है। ज्ञान का अनुत्पाद भी अभाव है, अतः वह भी ज्ञात होकर अन्य के अभाव का ज्ञान करायेगा। अब यदि यह माना जाय कि ज्ञानानुत्पाद ज्ञात होकर ही अभाव का ज्ञान कराता है तो प्रश्न यह है कि उसकी ज्ञप्ति कैसे होती है ? क्या अन्य प्रमाणाभाव से ? अथवा स्वतः ? इन दोनों विकल्पों पर विचार करने पर एक में अनवस्था दोष और दूसरे विकल्प से सर्वामाव की ज्ञप्ति भी स्वतः हो जायेगी फिर प्रमाणाभाव व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार सिद्ध है कि प्रमाण-प्रमेय के ग्राहक प्रमाण का अभाव सकलशून्यता को सिद्ध करने में असमर्थ है । अनुपलब्धि भी सकलशून्यता को साधक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में प्रतिज्ञा, हेतु का विरोध है और सिद्धसाध्यता का प्रसंग भी है। क्योंकि शून्य-अद्वैतवाद में प्रध्वस्त और अनुत्पन्न पदार्थों की सत्ता नहीं मानी गयी है । एक बात यह भी है कि धर्मी, हेतु और दृष्टान्त की सत्ता मानने पर उनके ज्ञापक साधनों द्वारा अनुपलब्धि नष्ट हो जाती है । अनुपलब्धि अन्य की प्रतीति कैसे कराती है-यहाँ एक प्रश्न यह भी किया गया है कि अनुपलब्धि स्वरूप से अधिगत होकर अन्य की प्रतीति कराती है अथवा अनधिगत होकर" ? १. (क)......"दुष्टेन्द्रियप्रभवप्रत्ययाः संशयादयः ज्ञानानुत्पादो वा ? न्या० कु० च० पृ० १३७ । (ख)......"सोपि संशयादयः प्रत्ययाः प्रमाणानुत्पादो वा ? स्या० २०, पृ० १८९ । २. वही। ३. वही। ४. नाप्यनुपलब्धेः प्रमाणप्रमेययोरभावात् सकलशून्यतासिद्धिः"। न्या० कु० च०पृ०१३८ । ५. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy