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________________ 70 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 प्रभाचन्द्र उपर्युक्त विकल्पों का निराकरण करते हुए कहते हैं कि अनुपलब्धि स्वरूप से अनधिगत होकर अन्य की प्रतीति नहीं करा सकती है, क्योंकि अनुपलब्धि ज्ञापक है और जो ज्ञापक है वह स्वरूप से अधिगत होकर ही अन्य की प्रतीति कराता है, जैसे धूमादि; अनुपलब्धि भी समस्त अभावों की ज्ञापिका है, अतः वह स्वरूप से अधिगत होकर ही अन्य को जान सकती है', जो शून्य अद्वैतवाद में सम्भव नहीं है । इसी प्रकार अनुपलब्धि अधिगत होकर अन्य की प्रतीति कराती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से सकलशून्यता- स्वरूप का अधिगम मानने से सकलशून्यता नष्ट हो जायेगी । क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों का अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा ? 1 इस प्रकार जो अनुपलब्धि लिङ्ग रूप से स्वयं अनिश्चित है, दृष्टान्त में जिसके सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, वह अपने साध्य की सिद्धि में गमक नहीं हो सकती है । · विचार से भी सर्वाभाव सिद्ध नहीं होता है - अब यदि विचार से सकलशून्यता सिद्ध की जाय तो प्रभाचन्द्र और वादिदेव सूरि यहाँ भी प्रश्न करते हैं कि विचार वस्तुभूत हैं नहीं ? यदि यह माना जाय विचार वास्तविक हैं तो 'सकलशून्यता है' यह कहना ठीक नहीं है । अब यदि यह माना जाय कि विचार वास्तविक नहीं है तो सकलशून्यता की सिद्धि कैसे होगी ? विद्यानन्द ने अष्टसहस्त्री और तत्त्वार्थ वार्तिकश्लोक में भी कहा है शून्यवादी मत में किसी बात का विचार नहीं हो सकता है क्योंकि किसी निर्णीत वस्तु के होने पर अन्य वस्तु के विषय में विचार किया जा सकता है । जब सर्वत्र विवाद है तो किसी तत्त्व के विषय में विचार कैसे किया जा सकता है । साधन से सकल प्रसङ्ग साधन से भी सकलशून्यता सिद्ध नहीं होती है-यदि प्रसङ्ग शून्यता सिद्ध की जाय तो साधन और साध्य का अस्तित्व सिद्ध हो जाने से शून्य- अद्वैतवाद ही नष्ट हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि माध्यमिक मत में स्व-पर का विभाग न होने से प्रसङ्गसाधन असम्भव है, क्योंकि वह पर की दृष्टि से अनिष्टापादन रूप होता है । इसके अलावा एक बात यह भी है कि जो व्यक्ति प्रतीतिसिद्ध प्रमाण- प्रमेय के प्रपञ्च को न मानकर स्वप्न में भी न प्रतीत होने वाले शून्यवाद को मानता है, उसे प्रभाविक कैसे माना जा सकता है" । ९. वही । २. नाप्यधिगता सकलशून्यताविरोधानुषङ्गात् । न्या० कु० च०, १११५, पृ० १३८ । ३. (क) ननु विचारो वस्तुभूतोऽस्ति न वा ? प्रभाचन्द्र न्या० कु० च०, ११५, पृ० १३८ । (ख) ननु विचार: पारमार्थिकः समस्ति न वा । वादिदेव सूरिः स्या० २०, ११६, पृ० १९० । ४. (क) अष्टसहस्त्री, कारिका १२, पृ० ११६ ॥ (ख) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - अध्याय १, आह्निक १, सूत्र १, श्लोक १४०, पृ० ८० । Jain Education International ५. ( क ) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च० पृ० १३८ । (ख) वादिदेव सूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १११६, पृ० १९० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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