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________________ 68 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No 3. वस्तु की सिद्धि तो प्रमाण से होती है। अब यदि यह माना जाय कि प्रमाण है तो शून्यता सिद्ध नहीं होती है। हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय में, हेमचन्द्र की अन्य योगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका में इसके टीकाकार मल्लिषेण की स्याद्वादमञ्जरी में भी इसी प्रकार कहा गया है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं-"किसी प्रमाण के अभाव में भी यदि वस्तु की स्थिति मानी जायेगी तो तत्त्व व्यवस्था ही नष्ट हो जायेगी। क्योंकि बिना प्रमाण के सभी वादो अपनीअपनी इच्छानुसार पदार्थों की कल्पना कर लेंगे।" मल्लिषेण कहते हैं कि यदि शून्य-अद्वैतवाद आगम प्रमान से सिद्ध माना जाय तो शून्यवाद सिद्धान्त अशून्यवाद में बदल जायेगा। अब यदि शून्य-अद्वैतवादी कहें कि शून्यता को सिद्ध करने वाले प्रमाण के अतिरिक्त सभी वस्तुएँ शून्य रूप हैं तो इसके प्रत्युत्तर में हरिभद्र कहते हैं कि प्रमाण की सहायता से शिक्षित व्यक्ति भी शून्य रूप ही हुआ, फिर उसको शून्यवाद का उपदेश देना व्यर्थ ही हुआ । अब यदि शून्यवाद, शून्यवाद का प्रतिपादक और शन्यवाद सीखने वाले को भी अशून्य मान लें अर्थात् सभी का अस्तित्व स्वीकार कर लें तब तो अनेक वस्तुएँ अशून्य रूप सिद्ध हो जायेंगी, और शून्यवाद सिद्धान्त नष्ट हो जायेगा। इस प्रकार शून्यवाद में प्रमाण नहीं माना जा सकता और प्रमाण के अभाव में प्रमेय रूप शून्य की भी सिद्धि नहीं हो सकती है । अतः शून्य-अद्वैत सिद्धान्त ठीक नहीं है। सकलशून्यता का क्या कारण है : प्रमाचन्द्र और वादिदेव सूरि शून्य-अद्वैतवादी से प्रश्न करते हैं कि सकल शून्यता क्यों है ? १. (क) प्रमेय कमल मार्तण्ड, पृ० ९७-९८ । (ख) प्रभाचन्द्र : न्याय कुमुदचन्द्र, ११११५ • पृ० १३७ । २. अत्राप्यमिदधत्यन्ये किमित्थं तत्त्वसाधनम् । प्रमाणं विद्यते किञ्चिदाहोस्विच्छून्ममेव ही ॥ शून्यं चेत् सुस्थितं तत्त्वमस्ति चेच्छून्मता कथम् । तस्यैवमनुसद्भावादिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ शा० स०, छठा स्तवक, कारिका ४७०-४७१ । ३. कारिका १७ । ४. पृ० १६८ । ५. हरिभद्र : शास्त्रवार्तासमुच्चय, कारिका ४७२ ।। ६. किञ्च स्वागमोपदेशेनैव "शून्यवादः प्ररूप्यते, इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपक्षसिद्धिः प्रमाणमङ्गीकरणात् । मल्लिषेण : स्याद्वादमञ्जरी १७, पृ० ९६९ । ७. शा० स० ४७३। ८. वही ४७४-४७६ । ९. स्या० स० १७, पृ० १६९ । १०. प्रमाचन्द्र : न्या० कु० च०, ११५, पृ० १३७ । वादिदेव सूरि: स्या० २० १११६, पृ० १८९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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