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शून्य- अद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में
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भगवन् ! शून्य - अद्वैतवाद आपका सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि वह सिद्धान्त आकाश -कुसुम की तरह असत् अर्थात् निरर्थक है' ।
आतमीमांसा में आचार्य कहते हैं कि शुन्य अद्वैतवादी अपने सिद्धान्त को न तो सिद्ध कर सकते हैं और न दूसरों के मत का निराकरण कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है, किन्तु शून्य- अद्वैत न तो बोध अर्थात् ज्ञान प्रमाण स्वार्थानुमान ही सम्भव है और न वाक्य प्रमाण अर्थात् परार्थानुमान रूप प्रमाण सम्भव है । "
स्वामी कार्तिकेय कहते है कि शून्यवाद असत्यवाद है । जब सभी पदार्थं सत् रूप हैं तो असत् कैसे हो सकते हैं । यदि कुछ नहीं हैं तो वे शून्य कैसे हो सकते हैं ? दूसरी बात यह है कि यदि सब असत् है तो 'सब कुछ असत्' है ऐसा कथन करने वाला भी असत् ही होगा । जब कथन करने वाला ही नहीं है (असत् है) तब 'सब शून्य है' इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कैसे हो सकता है कहते हैं कि शून्यवाद की स्थापना के लिए शून्यवादी के वचन शून्यरूप हैं शून्यरूप से वे असत् ही सिद्ध हुए और अशून्यरूप मानने से शून्यवाद आचार्य प्रभाचन्द्र भी कहते हैं कि समस्य पदार्थों के अभाव को शून्य नहीं क्योंकि समस्त पदार्थों के अभाव को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है प्रमाण के अभाव में उस शून्य की सिद्धि कैसे हो सकती है, क्योंकि
। मल्लिषेण मी या अशून्यरूप नष्ट हो जायेगा
?
कहा जा सकता,
।
।
१. अभावमात्रं
परमार्थं वृत्तेः,
स संवृतिः सर्व विशेष - शून्या । तस्या विशेषौ किल बन्ध-मोक्षौ, त्वामतिवदनाथ वाक्यम् ॥ व्यतीत- सामान्यविशेष - भावाद्, विश्वाऽभिलाषार्थ विकल्पशून्यम् खपुण्यवत्स्याद् सदेव प्रबुद्ध-तत्त्वाद्भवतः परेषाम् ॥
तत्त्वं,
आ० समन्तभद्रः युक्त्यनुशासन, कारिका २५-२६ । २. अभावैकान्तपक्षेऽपि मावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम् ॥ आ० समन्तभद्रः आप्तमीमांसा, का० १३ । ३. अच्छी हि पिच्छमाणो जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं । जो मणदि णत्थि किचि विसो झुट्ठाणं महाझुट्ठो ॥ जं सब्वं पिय संतं ता सो वि असंतओ कहे होदि । थिति किंचि तत्तो अहवा सुणां कहं मुनदि ॥ जदि सब्वं पि असं तं ता सो वि म संतओ कहं मणदि । त्यत्ति किपि तच्चं अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा० २५० - २५१ ।
४. स्या० मं० १७, पृ० १७२ ।
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