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64 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
'माना जाय कि पदार्थ पर से अर्थात् दूसरे कारणों के सहयोग से उत्पन्न होते हैं, तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि यहाँ पूछा जा सकता है कि पर से किसकी उत्पत्ति होती है ? सत् की, या असत् की, या सत्-असत् पदार्थ की ? विचार करने पर सत् आदि की उत्पत्ति नहीं बन सकती है । इसी प्रकार स्वतः और परतः इन दोनों से उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है। अहेतुक अर्थात् बिना कारण के उत्पत्ति होना किसी भी दार्शनिक परम्परा को स्वीकार नहीं है । क्योंकि सभी को कार्य-कारण सिद्धान्त माननीय हैं। अहेतुक उत्पत्ति मानने से समस्त पदार्यों की उत्पत्ति समस्त पदार्थों से होने लगेगी । अतः उत्पत्ति असम्भव है।
जिस प्रकार भावों (पदार्थों) की उत्पत्ति असम्भव है, उसी प्रकार उनकी स्थिति और विनाश भी असम्भव है। जो विकल्प और दोष उत्पत्ति में बतलाये गये हैं, वे ही पदार्थों की स्थिति और विनाश होने में प्राप्त होते हैं। अत: जिस प्रकार मृगमरीचिका में जल की प्रतीति भ्रान्त होती है, उसी प्रकार उत्पाद आदि की प्रतीति भ्रान्ति है।
कहा भी है
"वस्तु को उत्पाद, व्यय, (विनाश) रूप मानना भ्रम है और वह आनन्द का कारण उसी प्रकार बनती है, जैसे स्वप्न में कुमारी के पुत्र देख आनन्द का कारण होता है।
"जिस प्रकार माया, स्वप्न और गन्धर्वनगर स्वभावहीन हैं, उसी प्रकार उत्पाद, स्थिति और विनाश भी स्वभावहीन है।" ___ असत् उत्पादादि का प्रतिभास किस प्रकार होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रमाणवार्विक में शून्य-अद्वैतवादी कहते हैं कि अनादि अविद्या की वासना के प्रभाव से असत् उत्पाद-आदि का प्रतिभास उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार मन्त्र आदि के द्वारा किसी की शक्ति रुक जाने से मिट्टी के पिण्ड में हाथी, घोड़ा असत् वस्तुओं का प्रतिभास होने लगता है।
उसी प्रकार ग्राह्य (अर्थात् ग्रहण करने योग्य) और ग्राहक (अर्थात् ग्रहण करने वाला) भाव आदि भी अविद्या से निर्मित है। जिनकी बुद्धि भ्रमित नहीं है, उनको उस प्रकार का प्रतिभास नहीं होता है । धर्मकीति ने प्रमाणवार्तिक में कहा भी है
१ न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्य हेतुतः । उत्पन्ना जातु बिद्यन्ते भावाः क्वचन केचन ॥
नागार्जुनः माध्यमिक कारिका, ११४ । २. उत्पादव्यम बुद्धिश्च भ्रान्ताऽऽनन्दादिकारणम् । कुमार्याः स्वप्नवज्ज्ञेया पुत्रजन्मादि बुद्धिवत् ॥
हरिभद्र सूरिः शास्त्रवार्ता समुच्चय, ६ । कारिका ४६९ । ३. यथा माया यथा स्वप्नो गन्धर्वनगरं यथा । तथोत्पादस्तथा स्थानं तथा भङ्ग उदाहृतः ॥
स्थविर बुद्धपालितः माध्यमिक कारिकावृत्ति, संस्कृतपरीक्षा, कारिका ३४ । ४. मन्त्रापप्लुताक्षाणां यथा मृच्छकलादयः । अन्यथैवाऽवभासन्ते तद्रूपरहिता अपि ।
धर्मकीर्तिः प्रत्यक्षपरिच्छेद, कारिका ३५५ ।
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