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________________ शून्य-अतवाद की ताकिक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में 63 होता है। कहा भी है-"सब प्रत्यय निरालम्ब स्वरूप हैं, क्योंकि जो प्रत्यय होते हैं, वे निरालम्ब होते हैं, जैसे स्वप्न, इन्द्रजाल आदि के प्रत्यय' ।" __अनुभूयमान, मध्यक्षण रूप संवित्ति से भिन्न अर्थ में किसी प्रमाण की प्रवृत्ति भी नहीं होती है। उसी संचित्ति को परमार्यसत् मध्यमा प्रतिपत्ति, सर्वधर्मनिरात्मकता और सकलशून्यता कहते हैं । मध्यान्तविभागसूत्र टीका में कहा भी है ___ "वही मध्यमा प्रतिपत्, सर्वधर्मनिरात्मता, भूतकोटि, तथता और शून्यता कहलाती है।" सभी अर्थ सर्वधर्म रहित (स्वभाव रहित) इसलिए हैं, क्योंकि वे न तो एकरूप हैं और न अनेकरूप हैं। जो न एक रूप है और न अनेकरूप हैं, वे परमार्थ सत् नहीं हैं, जैसे गधे के सींग। अन्य दार्शनिकों द्वारा कल्पित आत्मा आदि पदार्थ न एक रूप हैं और न अनेक रूप । आत्मा आदि में एकरूपता नहीं बन सकती है, क्योंकि कम से होने वाले विज्ञानादि कार्य में उपयोगी होने से उतने प्रकार का भेद प्राप्त होगा। नित्य और एक रूप मानने के कारण वे पदार्थ अनेक रूप हो ही नहीं सकते हैं। अतः भावों (पदार्थों) का जैसे-जैसे विचार किया जाता है। वैसे-वैसे वे भाव विशीर्ण अर्थात् विनष्ट होते जाते हैं। इस प्रकार सिद्ध है कि भाव न तो एक है और न अनेक । प्रमाणवार्तिक में भी यही कहा गया है। इसी प्रकार वस्तु नित्य है और न अनित्य है, क्योंकि नित्य पदार्थ में अर्थ-क्रिया असम्भव है और अनित्य वस्तु में उत्पत्ति और विनाश असम्भव हैं । __ पदार्थ उत्पादादिधर्मरहित हैं-शून्य अद्वैतवादियों के मत में पदार्थ उत्पादादि धर्म रहित भी है। वे कहते हैं कि पदार्थ स्वतः उत्पन्न नहीं होते हैं। यदि यह माना जाय कि पदार्थ स्वयं कारण के बिना उत्पन्न होते हैं तो उनमें देश, काल आदि नियम का अभाव हो जायेगा अर्थात् बिना कारण के कहीं भी कभी भी उत्पन्न होना मानना पड़ेगा। अब यदि यह १. अत एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवदिति प्रमाणस्य परिशुद्धिः । प्रजाकर गुप्तः प्रमाणवातिकालंकार, पृ० २२ । २. तथता भूतकोटिश्चानिमित्तः परमार्थिकः । धर्मधातुश्च पर्यायाः शून्यतायाः समासतः ॥ मध्यान्त विभाग सूत्र टीका, पृ० ४१, न्यायकुमुदचन्द्र ११५, पृ० १३१ में उद्धृत । ३. इदं वस्तुबलायातं यद वदन्ति विपश्चितः । यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विशीयन्ते तथा तथा ॥ धर्मकीत्तिः प्रमाणवातिक, प्रत्यक्ष परिच्छेद, श्लोक २०९ । ४. ब्रवते शून्यमन्ये तु सर्वमेव विचक्षणाः । न नित्यं नाप्यनित्यं यद् वस्तु युक्तयोपपद्यते ॥ निल्यमर्थक्रियाऽभावत् क्रमाक्रमविरोधतः । अनित्यमपि चोत्पादव्ययाभावान्न जातुचित् ॥ हरिभद्रसूरिः शास्त्रवार्तासमुच्चय, कारिका ४६७-४६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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