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________________ शून्य-अद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा : जैन दर्शन के आलोक में डॉ० लालचन्द जैन माध्यमिक सम्प्रदाय बौद्ध दर्शन का वह सम्प्रदाय है, जिसका मूलभूत सिद्धान्त शून्यवाद या शून्य-अद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। नागार्जुन शून्य-अद्वैतवाद के प्रवर्तक तो नहीं, लेकिन प्रमुख आचार्य अवश्य थे, जिन्होंने 'माध्यमिक कारिका' लिखकर शून्य-अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की और उसका प्रचार किया। नागार्जुन के उत्तरवर्ती आचार्यों में आर्यदेव, स्थविर बुद्धपालित, भाविवेक, चन्द्रकीति और शान्तरक्षित हैं। इन आचार्यों ने 'शून्य-अद्वैतवाद' पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखकर इस सिद्धान्त को पुष्पित और संवद्धित किया है। चतुःशतक, माध्यमिक कारिका वृत्ति (तिब्बती अनुवाद), प्रज्ञाप्रदीप मध्यम-हृदय कारिका, माध्यमिकावतार, प्रसन्नपदा (माध्यमिक कारिका पर टीका), तत्त्वसंग्रह बोधिचर्या वतार और शिक्षासमुच्चयम् आदि शून्य-अद्वैतवाद के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त माध्यमिकेतर दार्शनिक ग्रन्थों में भी पूर्व पक्ष के शून्य-अद्वैतवाद का विवेचन उपलब्ध है। शून्यवाद का अर्थ-इस मत के अनुसार एक मात्र शून्य की ही सत्ता है। माध्यमिक मत में इन्द्रिय दृष्टिगोचर जगत् के अतिरिक्त अस्ति, नास्ति, तदुभय और नोमय इन चार कोटियों से रहित एक निरपेक्ष सत्ता की कल्पना की गयी है । यह निरपेक्ष सत्ता या तत्त्व परम तत्त्व कहलाता है। इसी को माध्यमिकों ने शून्य कहा है। क्योंकि परम तत्व अवर्णनीय या अनिर्वचनीय है। इसी प्रकार माध्यमिकों ने वस्तु को भी अनभिलाष्य कहकर तत्त्व की तरह उसे भी शन्य कहा है । इसी कारण उन्होंने संसार को अनिर्वचनीय और शून्य कहा है। माध्यमिकों ने ससार में प्रतीत होने वाली अनेकता को नहीं माना है। उनका मन्तव्य है कि अनेकत्व की प्रतीति (प्रतिमास) अनेकत्व के होने पर नहीं होती है। जिस प्रकार स्वप्न में अनेकत्व का प्रतिभास अनेकत्व के अभाव में प्रतीत होता है। उसी प्रकार संसार में अनेकत्व की प्रतीति होती है। अतः आलम्बन प्रत्ययरहित संवेदनमात्र ही वास्तविक तत्त्व है। सम्पूर्ण प्रत्ययों का स्वभाव आलम्बन रहित ही है। निरालम्बन स्वभाव की सिद्धि प्रत्ययत्व हेत से होती है। स्वप्नादि में प्रत्ययत्व का निरालम्बनत्व के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, अर्थात् निरालम्बन के होने पर ही प्रत्ययत्व होता है और निरालम्बन के अभाव में प्रत्ययत्व नहीं १. न सन् नासन् सदसन्न चाप्यनुभवात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः नागार्जुनः माध्यमिककारिका । १७ । २. विस्तार के लिए देखें-भा० द०, पं० डॉ० न० कि० देवराज, पृ० १८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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