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तेरापंथी संतों की काव्य-साधना
मिथ्या और अस्थाई हैं । तुम जन्म-मरण के व्यापार को देखकर विकम्पित और करुण होते हो । यह राग का रोग संक्रामक है ।"
हिन्दी साहित्य के गौरवपूर्ण प्रवाह है । यत्र-तत्र अन्य और साधुवृन्द इन्हें 'गाया'
मुकुटमणि हैं, इन रसों की बूंदें भी करते हैं, पर पूर्व
इसी प्रकार अनेक खण्ड-काव्य है, जो खण्ड-काव्यों में वैराग्य-रस की मन्दाकिनी का दीख पड़ती हैं, सब के सब खण्ड-काव्य गेय हैं कालीन खण्ड-काव्यों का गायन और वाचन कम होने लगा । फलस्वरूप इनकी धुन को लोग भूल रहे हैं । निकट भविष्य में लोककण्ठ इनके स्वरों से अपरिचित हो जायेंगे। इन ढालों की धुनियों और स्वरों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इन ढालों का टेप कर लिया जाय तो बहुत ही लाभदायक होगा ।
१. ( वैराग्य- सुधा, ढाल - ४ पृ० सं० १५० )
मुझ वल्लभ मुझ मांय विराज, ज्ञान चरण गुण धीर ।
अवर सहुँ सुपनारी माया, तँ क्यूँ हुवो दिलगीर ॥ तूं क्यूँ हुवो दिलगीर योगेश्वर, तँ क्यूँ हुवो दिलगीर | आत्मस्वरूप ओलख करणी स्यूँ, ज्यूँ पामो भव जल तीर ॥१॥ स्थिति अनुसार परिवार सहुजन मात तात सुत वीर । निऊतिरिया बहिनी भतीजी भाणेजी, कोईय न माँगें मीर || को० यो० को || तँ क्यूँ योगी थरहर कम्प्यो, केम हुवो दिलगीर | भस्म लगाय भरम नहीं भाग्यो, नहीं जाण्यो निज गुण हीर ॥
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