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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
आगमन हुआ । योगी अत्यन्त करुण स्वर में बोला - दासी, मेरा हृदय फटा जाता है । कंठ अवरुद्ध हो गये हैं । मैं हृदयविदारक दृश्य का वर्णन नहीं सकता। देखते-देखते मेरे मठ के सामने कुँवर को सिंह ने मार डाला । योगी को करुण अवस्था में देख दासी ने फटकार भरे शब्दों में कहा - " जन्म-मरण का चक्र अबाध गति से चलता है । सुरेन्द्र, नरेन्द्र सभी अस्थिर हैं, सभी को मृत्यु के मुँह में समाहित होना होता है । राग, द्वेष दुःख का कारण है । योगियों को राग-द्वेष से ऊपर उठकर समता में जीना चाहिए। तुमने योग मुद्रा तो धारण कर ली पर राग-द्वेष के रोग से मुक्त न हो सके ।" योगी राज-परिषद में उपस्थित हुआ और उसी प्रकार करुणा स्वर में उसने वृत्तान्त कह सुनाया, पर राजा पर योगी की कारुणिक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । कुँवर की मृत्यु का संवाद सुनकर राजा तिल मात्र भी विचलित न हुआ और संयत स्वर में बोला - "अनन्त जीव क्षण-प्रति-क्षण जन्मते और मरते हैं । तुम किस-किस की चिन्ता करोगे । समता में जीना ही श्रेयस्कर है ।" योगी राजन् की बात सुनकर स्तब्ध रह गया और अन्तःपुर में आकर रानी के सामने वृत्तान्त कह सुनाया । रानी ने मी योगी को धिक्कार भरे शब्दों में कहा कि "यह संसार इन्द्रजाल है, जीव यहाँ नटों की तरह नृत्य करते हैं, मोह की मदिरा में अभिनय करते हैं । बाप बेटा बनता है, माँ नारी बनती है --विचित्र नाते हैं तुमने तो योग धारण किया है, फिर इस मोहSara में क्यों रमण करते हो ?” सुनकर योगी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा माँ के हृदय में पुत्र के प्रति स्नेह के भाव न हो यह अवश्य ही विस्मयात्मक बात है । योगी फिर कुँवर की पत्नी के प्रासाद में आकर करुणा भरे शब्दों में पर भी कोई प्रभाव न पड़ा और वह योगी को उपदिष्ट करने अन्तःकरण में वास करते हैं । वे ज्ञान, गुण और वीर्य के सागर हैं ये सांसारिक सम्बन्ध तो
उन्मत्त होकर
।
इस संसार
में
रानी की बात
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१. (वैराग्य सुधा - ढाल १५० सं० १४४) ।
सुरपति नरपति सर्व अथिर छै, श्वास रो किसो विश्वास तूं क्यूँ । वो रे योगी गल गलो, थोरे नहीं आयो ज्ञान प्रकाश ॥ सं० ॥ ऊँच ने नीच रंक राजा सहू, अनिच मरण: अपेक्षाय । क्षण-क्षण भर जिन भाखियी ! तुं सोच देख मन मांय ॥३॥
२. ( वैराग्य सुधा -- ढाल - १ पृ० सं० १४५) ।
जीव अनन्ता नित्य ही मर रह्या, मच्छ गला गलणे रव ।
तूं सोचकर सी रे किण- किण जीव रो, तिण स्यूँ समभाव रहणो विशेष ॥'
३. (वैराग्य- सुधा, ढाल - ३ पृ० सं०-१४७)
इन्दजाल संसार ए, मोह जाल तन पहनें,
योगी तूं कांई राचै रे ।
जीव
नटवा जिम् नाचे रे ।
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वृतान्त कह सुनाया पर पत्नी लगी- "मेरे प्रियतम तो मेरे
बाप मरी बेटो हुवै, माता इत्यादिक सगपण छणा, कर्म
मुरख नर मार्च रे ॥यो० ॥
मर हुवै नारी रे | तणी गति भारी रे । आण सांग अपारी रे ॥ यो० ॥
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