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________________ तेरापंथी संतों की काव्य-साधनों 59 तेरापन्थ के सन्त-कवियों ने अनेकों खण्ड-काव्यों की रचना की है। इन खण्ड-काव्यों के कथानकों का श्रोत जैन-आगम और जैन-पुराण है। परम्परा के अनुसार साधु साध्वियां, श्रोताओं के बीच आख्यानों का वाचन करते हैं। ये आख्यान पूर्वरचित भी होते हैं और सन्त बराबर ऐसे काव्यों की स्वयं रचना भी करते रहते हैं । ___ आचार्य भिक्षु ने बहुत सारे खण्ड-काव्यों की रचना की, जिनमें कुछ के नाम इस प्रकार के हैं—गोसाला री चौपाई, उदइ राजा को बखांण, सुबाहु कुमार रो बखांण, मल्लीनाथ रो बखाण, नन्द मणिहार रो बखांण इत्यादि । आचार्य जी के खण्ड-काव्यों का स्रोत भगवतीसूत्र है, इनकी अधिकतर रचनाओं के कथानकों का वृत्तान्त भगवतीसूत्र में वर्णित है। ___ गौसाल री चौपाई का कथानक "भगवतीसूत्र" के १५ वें शतक से लिया गया है । गौसाल भगवान महावीर का शिष्य बना, पर वह बहुत ही उद्दण्ड और वक्र प्रवृत्ति का व्यक्ति था । आचार्य जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि भगवान् गोसाल को दीक्षित करके भूल की। तीर्थकर कैवल्य-ज्ञान हुए बिना दीक्षा नहीं देते। भगवान् ने छमस्त अवस्था में ही गोसाल को दीक्षित किया और एक मुनि द्वारा तेजस लेश्या का गोसाल पर प्रयोग किये जाने पर शीत लेल्या से उसे बचाया भी-यह भगवान् की दूसरी भूल थो। ऐसा किसी और चिन्तक और विचारक ने नहीं लिखा । गौसाल भगवान् का निन्दक बना । वह स्वयं को 'जिन' कहता था। उसके हृदय में भगवान के प्रति द्वेष के घनीभूत भाव भरे थे। उसने भगवान पर तेजस लेश्या का प्रहार किया, पर तेजस लेश्या भगवान् के शरीर को भेद नहीं सकी और वापस गोसाल के शरीर में प्रविष्ट कर गयी। गोसाल अपने किये पर पछताने लगा। पीड़ा से व्याकुल होकर कहने लगा- "मुनि ! अणगार, आचार्य, तीर्थंकर आदि की असातना नहीं करनी चाहिए। ऐसे महात्माओं को निन्दा और असातना करने पर घनीभूत घातिक कर्मों का अनुबन्ध होता है।" 'मोहजीत राजा को बखान' जयाचार्य की नितान्त जनप्रिय रचना है, इस आख्यान में पाँच ढालें हैं। सरल भाषा, प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति और गेय तत्त्व से ओत-प्रोत रहना इस रचना की विशेषता है। रचना लघुकाय होने के कारण लोग इसे सामयिक के समय बांचते हैं। सभी ढालों में वैराग्य रस की धारा प्रवाहित है। मोहजीत राजा का सारा परिवार निर्मोही था। राग द्वेष से ऊपर उठकर सदा परिवार के जन समता में जीते थे। इन्द्रलोक में इस परिवार की गरिमा को चर्चा हुई । एक देव मोहजीत राजा के परिवार की प्रशंसा सुन न सका। योगी के भेष में नगर के बाहर ठहर गया। राजा के कुंवर को उसने छिपा दिया और स्वय उदासीन मुद्रा में अपने मठ में बैठ गया। इतने में कुंवर की खोज में दासी का १. (भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, प्रकाशक जैन श्वे० ते० महासभा, कलकत्ता, ढाल-४१ पृ० सं०-६५)। आचार्य ने उवझाए ना ए, प्रतणीक मत होय जो कोय । अजस कीजो मती ए, बले आंगुण मत बोल जो सोय ॥ वले अकीरत कर जो मती ए, कीर्धा हुवे दुख अतंत । मों जिम संसार में ए, भ्रमण करोला बार अनंत ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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