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शून्य-अद्वैतवाद की ताकिक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में
65 “यद्यपि परमार्थ रूप से ज्ञान में भेद नहीं है, पुनरपि जिनका दर्शन विपर्यय से युक्त है, उनको वह ग्राह्य और ग्राहक संवित्ति युक्त (परस्पर भेद वाला) दृष्टिगोचर होता है।"
__ जिस प्रकार सूर्य की किरणों के द्वारा कुहरा दूर हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या का विलय हो जाने पर ग्राह्य-ग्राहक आदि धर्मों से रहित संवित्ति का स्वरूपमात्र ही प्रतिभासित होता है । धर्मकीर्ति ने कहा भी है-"बुद्धि का न तो कोई ग्राह्य है और न कोई ग्राहक है । ग्राह्य ग्राहक-भाव से रहित होने के कारण वही बुद्धि स्वयं प्रकाशित होती है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शून्य-अद्वैतवाद में यह समस्त संसार शून्य रूप है। घट-पट आदि पदार्थों का प्रतिमास मिथ्या है। एकमात्र शून्य ही परम सत्य है और संवृति सत्य मिथ्या है। शून्यवाद में आत्मा, जीव, परलोक आदि असत्स्वरूप हैं। शून्य-अद्वैतवादी कहते हैं कि जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में मरुभूमि में पड़ती हुई सूर्य की चमकती हुई किरणों को जल समझकर मृग आदि प्यास से व्याकुल होकर दौड़ा करते हैं, उसी प्रकार भोग के इच्छुक लोग परलोक के सुखों के लिए दौड़ा करते हैं।
शून्य-अद्वैतवाद की समस्त वैदिक और जैन दार्शनिकों ने समीक्षा की है। अक्षपाद, वात्स्यायन उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र और जयन्त मट्ट, महर्षि जैमिनी, शबर स्वामी, प्रभाकर, कुमारिलमट्ट, पार्थसारथि मिश्र, शंकराचार्य प्रमुख वैदिक दार्शनिक हैं, जिन्होंने शून्य-अद्वैतवाद का प्रबल युक्तियों द्वारा निराकरण किया है । जैन दार्शनिकों में आ० समन्तभद्र, भट्टाकलंक
१. वही, कारिका ३५४ । २. नान्योऽनुभाव्यस्तेनास्ति तस्य नानुभवोऽपरः । तस्यापि तुल्य चोद्यत्वात् स्वयं सैव प्रकाशते ।
वही, प्रत्यक्ष परिच्छेदः, का० ३२७ । ३. ततः कुतोऽस्ति वा जीवः परलोकः कुतोऽस्ति वा।
असत्सर्वमिदं यस्माद् गन्धर्वनगरादिवत् ।। अतोऽभी परलोकार्थं तपोऽनुष्ठानतत्पराः । वृथैव क्लेशमायन्ति परमार्थानभिज्ञकाः ।।
जयसेनः महापुराण (आदिपुराण) ५।४६-४८ । ४. (क) अक्षपाद : न्यायसूत्र, ४।१।३७-४।१।४० ।
(ख) वात्स्यायन : न्याय दर्शन भाष्य, पृ० ४९६-५०३ । (ग) उद्योतकर : न्यायवार्तिक, पृ० ५१९ । (घ) वाचस्पतिमिश्र : न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका पृ० ६५३ । (ङ) जयन्तभट्ट : न्याय मञ्जरी, पृ० ५४७ । (च) जैमिनी : मीमांसा सूत्र, १११-५ । (छ) शबर स्वामी : शाबर भाष्य ।
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