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________________ तेरापंथी संतों की काव्य-साधना 57 उठती है । नारी रूप का वृत्तान्त सुनकर हम भ्रांत हो उठते हैं और अधःपतन की गर्त में जा गिरते हैं । " जयाचार्य ने उत्तराध्ययनसूत्र का बड़ा ही सुरम्य रूपान्तरण किया है | भगवान् अपने परम स्नेही शिष्य गौतम को उपदिष्ट करते हुए कहते हैं- " द्रुम के पीले पके हुए पत्तों को गिरते देर नहीं लगती । मानव जीवन की भी यही स्थिति है । किस समय कालकवलित होगा, कहा नहीं जा सकता । इसलिए प्रज्ञावान् जनों को क्षणभर के लिए भी प्रमाद न करना चाहिए | हे गौतम - तुम मेरे वचनों को ग्रहण कर संयम मार्ग पर अग्रसर होते रहो ।” “जयाचार्य ने मार्मिक भावों को बहुत ही प्रभावशाली शब्दों में अभिव्यक्ति दी है । सम्यक्त्व के बिना चरित्र की क्रिया पूर्णरूपेण फलवती नहीं होती । चरित्र के विटप में सुमधुर फल तभी होंगे, जबकि उसकी जड़ों का सिंचन सम्यक्त्व के जल से किया जाय ।" "जब देह जर्जरित हो जाती है, साधना के लिए जब साधक का शरीर निष्क्रिय हो जाता है, तब वह शरीर से वियुक्त होने की अभिलाषा करता है । आमरण अनशन ग्रहण कर पिंजर शरीर से छुटकारा पाने के लिए कृतसंकल्प हो जाता है । उसकी भव्य - भावना का उदय होता है । भोग-लिप्सा के प्रति साधक उदासीन हो जाता है ।" जयाचार्य की वाणी आचार्य भिक्षु की वाणी से अधिक मधुर जान पड़ती है । इनकी रचनाओं में प्रसाद गुण का विकास हुआ है । इसका कारण यह है कि आचार्य भिक्षु क्रान्ति का मशाल लेकर आगे बढ़े और जयाचार्य ने शान्ति की वीणा का वादन किया था । यह युग और परिस्थितियों का प्रभाव था । १. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, ढाल - ३ दुहा - १२ पृ० सं०-४३६ । " नीबू फलनों बारता सुम्मां रे, मुख पांणी मेले छें ताय । ज्यूं अस्त्री कथा सुपीयां थका रे, परिणांम थोड़ा चल जाय रे ॥" २. (वैराग्य-सुधा-सम्पादक - चम्पालाल सेठिया, उत्तराध्ययन दसवें की जोड़ पृ० सं० ११५ ढाल- १) जेह | जिम द्रुम पत्रज पांडुरो, पडै वृक्ष थी दिवस निशागण अतिक्रमें कांइ, तिम मनु जिनेश्वर भाखै जी, शिष्य प्रति होजी तूं तो समय मात्र पिण रखे प्रमाद करेहो जी ॥ गोत्रम गुण गेहो जी । जीवित एह ।। दाखँ जी । ३. ( वैराग्य सुधा - वही ढाल - ८ पृ० सं० १३६ गाथा - -४) जे समकित बिण म्हैं, चारित्र नी किरियारे । सरिया रे ॥ बार अनन्त करी, पण काज न ४. ( वही - ढ - ढाल - ९ गाथा - १ ) अनन्त मेरू मिश्री भरवी, पिण तृप्त न हुवो लिगार । इजाणी मुनि आदरें, अणसण अधिक उदार ॥ इह विधि अणसण आदरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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