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________________ 56 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 ढालों के अध्ययन से विदित होता है कि आचार्य जी को विषय का पूर्ण बोध था। जटिल और तात्विक विषय को इन्होंने सुललित काव्यमयी भाषा में प्रतिपादित किया है । आश्रव की व्याख्या करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि आश्रव जीव है, पाप-पुण्य का प्रवेश द्वार है, जीव की भावात्मक प्रवृत्तियां हैं। जो अच्छी प्रवृत्तियाँ हैं, उनके कारण पुण्य कर्म आत्मप्रदेशों की ओर आकृष्ट होते हैं और दुष्प्रवृतियों के कारण पाप कर्मों का आगमन होता है । "आचार्य जी ने एक सुन्दर रूपक के द्वारा निर्जरा की अवधारणा का स्पष्टीकरण किया है। यदि साबुन देकर कपड़ों को उबाला जाय फिर पानी के छींटे देकर उन पर चोट दी जाय और साफ पानी में उन्हें पखारा जाय तो सहज ही वे उज्ज्वल हो जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा को तपाकर ज्ञान के छींटे देकर ध्यान के जल में इसे डुबाकर धोने से उसका कर्म-रूपी मैल धुल जाता है।" नव-पदार्थ रचना की तेरह ढालें हैं। इस रचना में स्वामी जी का गम्भीर चिन्तन हमारे सामने आता है । स्वामी जी ने विशद रूप से विषय का प्रस्तुतीकरण किया है। "स्वामी जी ने अनुकम्पा (अहिंसा) की बड़ी ही सुरम्य व्याख्या की है। अनुकम्पा को परखने के लिए सम्यक् दृष्टि की आवश्यकता है । गाय, भैंस, आक ओर थूहर के दूध की प्रकृति भिन्न-भिन्न हैं । संज्ञा तीनों की एक ही है, पर आक के दूध से प्राण-वियोग हो जाता है जबकि गाय का दूध नीरोग और बलबद्धंक होता है। सावध अनुकम्पा कर्मबन्ध का हेतु है और निरवद्य अनुकम्पा मोक्षधाम पहुँचाने वाली है।" ब्रह्मचर्य और शील-निरूपण के सन्दर्भ में स्वामी जी ने मानव-मनोविज्ञान का रहस्य उद्घाटित किया है । नर-नारी के आकर्षण के सम्बन्ध में स्वामी जी का गहरा अनुभव था। ब्रह्मचर्य ब्रत के सेवी को किस प्रकार पैर फूंक-फूंक कर रखना चाहिए, इस सम्बन्ध में स्वामी जी ने बहुत ही सुन्दर और सटीक उदाहरण दिये हैं। "नीबू के ग्रहण की बात सुनने से मुंह में पानी आ जाता है। रसना लपलपाने लगती है और रस को चूसने की अभिलाषा तीव्र हो १. (नव-पदार्थ-ढाल-६ पृ० सं० २६)। आश्रव दुवार ते जीव छ, जीव रा भलाभुंडा परिणाम । मला परिणाम पुनराबारणा, मुंडा पाप वणा छ ताम ।। २. (नव-पदार्थ-आश्रव पदार्थ-पृ० सं० ४५) । 'ज्यू तपकर ने आतमने तपावें, ग्यान जल सू छारे ताय जो। ध्यान रूप जाय माहे झरवोले, जब मरम भेल छंट जाय जी ॥' ३. (भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, ढाल-१ दुहा-२-३ पृ० सं० ५२१)। 'गाय भैंस आक धारेनों, ए च्मारूई दूध । तिम अनुकम्पा जागजों, राखे मन में सूध ॥ २ ॥ आक दूध पौ छां थका, जुदा करे जीव काय । ज्यू सावध अनुकम्पा कीयां, पाप कर्म बंधाय ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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