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तेरापंथी संतों को काव्य-साधना
55 के समय साहित्य-सृजन का कार्य यथेष्ट रूप से हुआ। जयाचार्य स्वयं कवि थे। इन्होंने तीन लाख पदों की रचना की। इनके साथ-साथ और भी अनेक सन्त हुए, जिन्होंने काव्य की भूमि को उर्वर बनाने का प्रयास किया। इन सन्त-कवियों की रचनाएँ पूर्णरूपेण प्रकाश में नहीं आ सकीं। इनकी काव्य-लतिकायें पाण्डुलिपियों में ही पड़ी हैं। इनका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि तेरापंथ के सन्त अपनी रचनाओं को प्रकाशित नहीं करवाते थे। कारण सीधे रूप से पुस्तक प्रकाशन धार्मिक दृष्टि से निषिद्ध माना जाता था। श्रावक रचनाओं को कण्ठावगाहित कर पुनः लिखते और फिर उन्हें प्रकाशित करवाते । फिर भी इनकी बहुत सारी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। श्री पन्नालाल जी भंसाल ने इस दिशा में खोजकर तेरापंथी सन्तों की प्रकाशित रचनाओं की सूची तैयार की। उन्होंने २५५ रचनाओं की सूची प्रकाशित कर लोगों को जैन साहित्य से परिचित कराने का प्रयास किया।
स्व० श्री संतोषचन्द्र जी बरडिया ने जयाचार्य के साहित्य का सर्वेक्षण कर 'जयाचार्य की कृतियाँ' नामक एक पुस्तक छपवायी। इस पुस्तक में उन्होंने जयाचार्य की कृतियों का परिचयात्मक विवेचन किया है। जयाचार्य ने अपने जीवनकाल में विराट् साहित्य की सृष्टि की, पर उनका अधिकांश साहित्य अप्रकाशित अवस्था में पड़ा है। आचार्य तुलसी के समय भी साहित्य-सृजन का कार्य असाधारण रूप से चला। आचार्य तुलसी स्वयं काव्यस्रष्टा हैं । राजस्थानी में इनकी बहुत सारी रचनाएं जनसाधारण के सामने आयीं। आचार्य तुलसी की प्रखर प्रेरणा के फलस्वरूप खड़ी बोली में भी सन्तों द्वारा गद्य और पद्य-साहित्य सृष्ट होने लगा। युवाचार्य महाप्रज्ञ संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी और हिन्दी के उद्भट विद्वान हैं । गद्य में इनकी सौ से अधिक मीमांसात्मक पुस्तके प्रकाश में आ चुकी हैं। तेरापंथ धर्म-संघ की प्रकाशन-नीति में परिवर्तन हो जाने के कारण तेरापंथ-साहित्य का प्रकाशन-कार्य द्रुतगति से चलने लगा है। आचार्य भिक्षु का सम्पूर्ण साहित्य जैन-श्वेताम्बर-तेरापंथी-महासभा के द्वारा दो खण्डों में प्रकाशित हो सका है। महासभा-आदर्श-साहित्य-संघ, चूरू और जैन-विश्वभारती, लाडनूं के द्वारा प्रकाशन-कार्य सम्पन्न किया जा रहा है ।
तेरापंथी-काव्य-साहित्य को हम मुख्यतया ३ भागों में बाँट सकते हैं। ज्ञान-मीमांसा, आचार-मीमांसा, सन्त-चरित और ऐतिहासिक आख्यान । तेरापंथ के आदि आचार्य भिक्षु (सन्त भीखण जी) ने ज्ञान-मीमांसा एवं आचार-मीमांसा, सन्त-चरित-विषयक अनेकों रचनाएँ की हैं। खण्ड-काव्यों के रूप में इनकी २१ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। जयाचार्य ने भी ज्ञान-मीमांसात्मक और आचार-मीमांसात्मक तत्वों का अपनी काव्य-कृतियों में विवेचन किया है । आचार्य तुलसी ने भी साहित्य के विविध विषयों पर अपनी लेखनी उठायी । ये निरन्तर काव्य-सृजन में रत रहते हैं। इस निबन्ध में साहित्य का पूर्ण विवेचन सम्भव नहीं है । फिर भी हम कुछ उद्धरण देने के लोभ को संवरण नहीं कर सकते । जिन पुस्तकों से उद्धरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, उनका प्रकाशन ५०-६० वर्ष पूर्व हुआ था और अब उनका प्रकाशन बन्द हो गया है। पुस्तके उपलब्ध नहीं होती और जो पुस्तकें हैं, उनके जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होने के कारण उनके नाम के पृष्ठ फट गये हैं।
___ आचार्य भिक्षु की नव-पदार्थ की ढालों में स्पष्ट रूप से ज्ञान-मीमांसा का प्रतिपादन हुआ है। जीव-अजीव, पाप-पुण्य, आश्रव-संवर आदि तत्वों की सुस्पष्ट अभिव्यंजना हुई है ।
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