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52 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 हम कैसे पहुँच पाते ? प्राकृत साहित्य के माध्यम से उस संस्कृति के मौलिक स्वरूप की उद्भावना हुई है।
यद्मपि भगवान् वीर का अनुसरण करते हुए जैन वाङ्मय के प्राचीन आचार्यों ने प्राकृत भाषा में ग्रन्थों की रचना की, परन्तु उन्होंने इसका भी पक्ष नहीं पकड़ा । जहाँ कुछ आचार्य प्राकृत में ग्रन्थ-रचना कर रहे थे, वहाँ ही साथ-साथ कुछ अन्य आचार्य संस्कृत भाषा में भी ज्ञान को निबद्ध करने में जुटे हुए थे। जैन वाग्मय का आद्यदर्शन ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध है, जो प्राकृत के स्थान पर संस्कृत सूत्रों में निबद्ध है । आचार्य समन्तभद्र, अकलंकमट्ट तथा विद्यानन्दि कृत 'आतपरीक्षा', आप्तमीमांसा, प्रमाणविनिश्चय, अष्टसहस्त्री आदि जैन न्याय की प्रधान रचनाओं के अतिरिक्त आचार्य माणिक्य नंदि द्वारा रचित 'परीक्षामुख' नामक जैन न्याय का प्रसिद्ध सूत्रग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध है।
___भारत की इन दो प्राचीन भाषाओं के अतिरक्त मध्यकालीन कवियों ने पउमचरिउ, जसहर-चरिउ, आदि अनेक साहित्यिक रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में की और उत्तरकालीन कवियों ने अपनी अमूल्य कृतियां देकर इस साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से अलंकृत तथा आप्लावित किया।
साहित्य की दृष्टि से इस साहित्य ने एक ओर जहाँ पद्य तथा गद्य विधि को अपनाया वहीं काव्य तथा चम्पू के रूप में भी इसे साहित्यिक सौन्दर्य प्रदान किया, जिसमे व्याकरण, छन्द, अलंकार, नवरस आदि सभी छटाएँ बिखरी प्रतीत होती हैं। इन सब विशेषताओं के कारण जैन वाङ्मय का आकाश मानों विविध नक्षत्रों को पाकर उद्भासित हो उठा है।
_ विषय की दृष्टि से इसे चार भागों में विभाजित किया गया है, जो चार अनुयोगों के नाम से प्रसिद्ध है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । प्रथमानुयोग में जैनाम्नाय का वह इतिहास निबद्ध है, जिसमें प्रथम श्रेणी के शिष्यों को परमार्थ की ओर अग्रसर करने के लिए पुराण-पुरुषों की जीवनियों का दिग्दर्शन कराया गया है। इसके अन्तर्गत अनेकों काव्य तथा चम्पू और पुराण, नाटक तथा कथा-साहित्य सम्मिलित हैं । करणानुयोग जीव के परिणामों का तथा इसके कर्मों का, और लोक का तथा इसकी कार्य-कारण-रूप सकल तात्त्विक व्यवस्था का इतना सूक्ष्म विवेचन करता है, कि उसे हृदयांगम कराने के लिए बलात् उच्च श्रेणी के गणित की शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार का कथन जैन वाङ्मय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता ।
चरणानुयोग में गृहस्थों से लेकर यतियों तक के सकल आचार-विचारों की विस्तृत गवेषणा की गई है । द्रव्यानुयोग में तीन विभाग हैं-दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र । दर्शनशास्त्र जीवनोपयोगी तत्त्वों का और जगद्व्यापी तथ्यों का तर्क पूर्ण अनुसन्धान करता है। न्यायशास्त्र में उस अनुसन्धान का अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हुए समन्वयात्मक समाधान प्रस्तुत करता है । अध्यात्म शास्त्र में मुमुक्षुको चेतना की विविध शक्तियों का तथा उसकी विविध बाह्याभ्यन्तर प्रवृत्तियों का सूक्ष्म विवेक कराया जाता है।
__ इस प्रकार जैन वाङ्मय इतिहास की दृष्टि से, भाषा की दृष्टि से साहित्य की दृष्टि से और दर्शन तथा अध्यात्म की दृष्टि से अपने भीतर सभी प्रकार से परिपूर्ण है।
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