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________________ तेरापंथी संतों की काव्य-साधनां डॉ. सुमेरमल वैद्य एम० ए०, पीएच० डी० में भारतीय दर्शन और साहित्य में संत शब्द की गरिमा और गौरव का विराट महत्त्व बताया गया है । विद्वानों ने अपने मतों और अपनी अवधारणाओं के अनुसार इस शब्द की विशद् व्याख्या की है । (डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल संत शब्द की व्युत्पत्ति शांत शब्द से हुई बतलाते हैं । उनके अनुसार संत हृदय वैराग्य भाव की पावन धारा प्रवाहित होती रहती है ) ( श्री परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है, जिसने सत् रूपी परम तत्त्व का अनुभव कर लिया हो ) डा० शिवकुमार शर्मा संत शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- 'मेरी समझ में संत शब्द सत् से बना है, जिसका अर्थ है'ईश्वरोन्मुख' कोई भी सज्जन पुरुष हो सकता है । संकुचित अर्थ में निर्गुणोपासकों को ही संत कह दिया जाता है, जब कि सगुणोपासकों को भक्त ' ' हिन्दी साहित्य में निर्गुण-धारा के कवियों को ही संत -कवियों की संज्ञा दी गयी है । सगुण भक्ति के कवियों को मक्तकवि कहा गया है । भले ही रूढ़ रूप में इन कवियों का इस प्रकार विभाजन किया गया हो, पर वास्तव में ये सबके सब संतकवियों की ही कोटि में आ जाते हैं । दोनों ही श्रेणी के कवियों में शांत रस की धारा प्रवाहित हुई दीख पड़ती है । संत शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं । जैसे— श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अणगार, सदन्त, दन्त, यति । २ उपरोक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो व्यक्ति शान्ति, समता और सरलता में जीता है, जो माया, प्रवंचना, कुटिलता आदि वक्र प्रवृत्तियों से दूर रहकर सदा आत्मसाधना में रमण करता है, हम उसे संत की संज्ञा दे सकते हैं, पर जैन परम्परा में संत का कुछ विशिष्ट अर्थं भी होता है । प्रकृति और स्वभाव से जो सरल है, साधारणतया तो हम उन्हें संत कहते ही हैं, पर जैन संत परिभाषा के अनुसार जो व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह की साधना करता हो, हम उसी को संत या साधु की संज्ञा दे सकते हैं। साधु आत्मा की छठी गुणावस्था है । इस अवस्था में आत्मा पूर्ण रूपेण संवरित हो जाती है | साधु-जीवन छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थान तक चलता रहता है । इन अवस्थाओं में आत्मा का शोधन होता रहता है, इन्हीं साधकों को हम साधु या संत कहते हैं । पंचमहाव्रतों की आराधना के साथ-साथ पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का प्रयोग मी १. हिन्दी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, अष्टम संस्करण, लेखक -- डा० शिवकुमार शर्मा, पृष्ठ संख्या - १२३ । २. " जैन- परम्परा में सन्त और उनकी साधना पद्धति", लेखक – डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच, पुस्तक का नाम - सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री, अभिनन्दन ग्रंथ से, पृ० सं०- १२३ गाथा - ८८७ समणोत्रि संजदोत्रिय रिसिमुणि साधुत्ति वीरागोत्रि । णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्रि । मूलाचार | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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