SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनवाङ्मय ब्र० मनोरमा जैन, एम० ए० भारत के वाङ्मय में जैनसाहित्य अपना एक प्रधान स्थान रखता है- प्राचीनता की ष्ट से भाषा की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से और विषय की दृष्टि से भी । प्राचीनता की दृष्टि से वेद तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों के पश्चात् इसका स्थान सर्वोपरि है । ईसवी की प्रथम शताब्दी से लेकर आज तक इसकी धारा अक्षुण्ण बनी रही है । ईसवी शताब्दी एक से पूर्व क्योंकि इस क्षेत्र में ज्ञान को लिपिबद्ध करने की विधि प्रचलित नहीं थी, इसलिए यद्यपि उस समय का साहित्य उपलब्ध नहीं होता है, तदपि यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय इस क्षेत्र में ज्ञान का प्रचार नहीं था । इस संस्कृति का जितना कुछ ज्ञान आज लिपिबद्ध हुआ उपलब्ध होता है, उससे कई गुना अधिक उस समय गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा, मौखिक रूप से चला आ रहा था । " पण्णवणिज्जा भावा अनंतभागो द्र अणभिलप्पाणं । पण वणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुदणिबद्धो ॥” इस प्रकार विश्ववर्ती पदार्थों के अथवा तथ्यों के रूप का जितना कुछ ग्रहण भगवान् वीर को अपने दिव्य ज्ञान के द्वारा हुआ, उसका अनन्तवाँ भाग ही आज ग्रन्थों के रूप में हम प्राप्त कर पाये हैं । लिपिबद्ध होने से पहले जैन संस्कृति का सकल ज्ञान केवल मौखिक रूप से चला आ रहा था । बुद्धि के क्रमिक ह्रास को लक्ष्य रखते हुए, ज्ञान की परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए, लिपिबद्ध करने की बुद्धि बहुत पीछे जाग्रत हुई । जैन संस्कृति का यह ज्ञान भगवान् महावीर के पश्चात् प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा नहीं है । उनके पहले भी मौखिक रूप से इसका प्रचार बराबर प्रचलित था । अङ्गप्रविष्ट तथा अंगबाह्य के रूप में आगम - निबद्ध ज्ञान का जो विभाग शास्त्रों में किया गया प्राप्त होता है, उससे स्पष्ट है कि इसकी विशाल कुक्षि में भगवान् वीर के उपदेशों से विनिर्गत ज्ञान अतिरिक्त पूर्ववर्ती उस ज्ञान का भी संग्रह किया गया है, जो कि मुख- दर मुख चला जा रहा था। भगवान् वीर ग्यारह अंगों में निबद्ध है, उसी प्रकार उनके पूर्वं में सम्मिलित हैं । से आगत ज्ञान जिस प्रकार आचारांग आदि से आगत ज्ञान उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्वो भाषा की दृष्टि से इम साहित्य में अर्धमागधी तथा प्राकृत तो प्रसिद्ध हैं ही, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा कन्नड़ का प्रयोग भी इसमें बहुलता के साथ किया गया है । भगवान् वीर को क्योंकि अपना सन्देश जन-जन तक पहुँचाना इष्ट था, इसलिए उन्होंने तत्कालीन वैदिक आम्नाय में प्रचलित संस्कृत भाषा के पक्ष को तिलांजलि देकर जनसाधारण की भाषा को अपनाना ही न्याय समझा । यही कारण है कि उनके सकल उपदेश अर्धमागधी भाषा में हुए, जिसमें आधी तो मगध देश की राज्य भाषा सम्मिलित थी और आधी तत्कालीन ग्राम-भाषा । यदि भाषा के क्षेत्र में जैन साहित्य भी ब्राह्मण-ग्रन्थों की भाँति संस्कृत के पक्ष को पकड़े बैठा रहता तो भारत देश की अत्यन्त प्राचीन तथा प्रसिद्ध मगध संस्कृति के मूल तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy