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________________ 50 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 (ग) युक्ते ष्पकारे तद्धीने फकारोऽपि विधीयते ॥९॥ इस पंक्ति का आशय यह है कि जिस प्रयोग में 'ए' एवं 'प' संयुक्त हों, वहाँ उस 'रूप' के स्थान में 'फ' लाकर प्राकृत में प्रयोग करना चाहिए । इस नियम का प्रवर्तक आचार्य वररुचि का सूत्र "पस्य फः" (३-३४) है । इसका अर्थ यह है कि मूर्धन्य 'ए' जहाँ 'प' से संयुक्त हो वहाँ प्राकृत में 'फ' हो । अतः पुष्पम्, शष्पम् में 'प' के स्थान पर 'फ' होकर 'पुफ्फ', 'सफ्फं' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं । आ० हेमचन्द्र भी इसका समर्थन करते हैं। केवल उन्होंने वररुचिविरचित "पस्य फः" तथा "स्पस्य च" इन दोनों सूत्रों का एकीकरण उचित समझकर "प्पस्पयोः फः" (८-२-५३) ऐसा सूत्र दिया है। मार्कण्डेय मुनि का कहना है कि प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति एवं द्विवचन नहीं होते हैं१०. (क) चतुर्थी नात्र विज्ञेया न च द्विवचनं क्वचित् । इन दोनों निषेधात्मक वाक्यों के मूल स्रोत वररुचि के चतुर्थ्याः षष्ठी (५-१०:) तथा "द्विवचनस्य बहुवचनम्' (५-१०६) ये दोनों सूत्र हैं । आ० हेमचन्द्र ने भी दोनों सूत्रों (८-३-१३१), (८ ३-१३०) को यथावत् रखकर अपनी सहमति व्यक्त की है। (ख) पदादौ यो गुरुः सोऽत्र लघुरेव विधीयते ॥१०॥ इसका अभिप्राय यह है कि पद के आदि में विद्यमान गुरुवर्ण की जगह प्राकृत में लघुवर्ण का प्रयोग हो, किन्तु इस नियम की चर्चा न तो प्राकृत के किसी वैयाकरण ने की है और न प्राकृतसाहित्य में इसके अनुसार प्रयोग ही मिलते हैं। यूं संयुक्त वर्ण से पूर्ववर्ती दीर्घ वर्ण का ह्रस्व विधान किया गया है, परन्तु उसका सम्बन्ध इस नियम से नहीं है । 'पद' से पाद (चरण) का ग्रहण करने पर भी उक्त सिद्धान्त की पुष्टि नहीं होती है, क्योंकि छन्दों (पद्यों) में भी चरण के आदि में ह्रस्व करने का कोई नियम प्राप्त नहीं होता है और काव्यों में भी कहीं ऐसे प्रयोग नहीं दीखते हैं। __ ऐसी स्थिति में यद्यपि एक बात यह कही जा सकती थी कि क्षेत्र विशेष में विष्णुधर्मोत्तरपुराण के निर्माणकाल में इस तरह के प्रयोग की परम्परा रही हो, किन्तु उसका सर्वथा विलुप्त हो जाना अस्वाभाविक सा प्रतीत होता है । अतः यह पंक्ति चिन्त्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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