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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण एक तुलनात्मक विवेचन 49
आ० हेमचन्द्र का सूत्र है "खघयधमाम्" (८-१-१८७) इसका भी अर्थ वररुचि 'सम्मत ही है।
___ साहित्य में व्यवहृत प्रयोगों को देखने से भी यही स्पष्ट होता है। अतः ज्ञात होता है कि मार्कण्डेय मुनिप्रोक्त प्राकृतलक्षणघटित उक्त पद्य के अन्तिम वर्ण 'भ' के साथ भी क्वचित् का अन्वय उन्हें अभिप्रेत था। इनके उदाहरण के रूप में मुखम्, राघवः, कथा, वधूः, नमः आदि शब्दों में विद्यमान ख, घ, थ, ध एवं म के स्थान में क्रमशः हकारादिष्ट मुहं, राहवो, कहा, वहू, नहं आदि को देखा जा सकता है।
__ क्वचित् पदाश्रय एवं समर्थक उपर्युक्त दोनों आचार्यों के उक्त दोनों सूत्रों में बहुल और प्राय: पद की अनुवृत्ति आने के कारण सणमखलः, प्रलयधनः, अस्थिरः, जिनधर्मः, प्रणष्टभयः आदि शब्दस्थ ख, घ, थ, ध एवं म का 'ह' नहीं होने से क्रमशः ‘सरिसवखलो', 'प्रलयघनो', 'अथिरो', 'जिणधम्मो', 'पणट्ठभओ' आदि शब्द सिद्ध होते हैं ।
९. (क) 'त्सकारस्य छकारः स्यात्' ।
इसका अभिप्राय यह है कि 'त्स' के रूप में संयुक्त 'त्स' के स्थान में प्राकृत में 'छ' होता है।
इसका आधार वररुचि का "श्चत्सप्सां छः" (३-३९) यह सूत्र मालूम पड़ता है । सूत्र का अर्थ है-'श्च', 'त्स' तथा 'प्स' इन तीनों संयुक्त वर्गों के स्थान में 'छ' हो। अतः प्रकृतसिद्धान्त के अनुरूप उत्साहः एवं वत्सः शब्दगत 'त्स' के स्थान में 'छ' होने पर 'उच्छाहो' एवं 'वच्छो' प्रयोग बनते हैं ।
हेमचन्द्र भी वररुचि का अनुसरण करते हुए कहते हैं "ह्रस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले" (८-२-२१)। किन्तु उत्सव एवं उत्सुक शब्द में स्थित 'त्स' की जगह "सामोत्सुकोत्सवे वा” (८-२-२२) इस विशेष सूत्र का विधान कर 'छ' को प्रायिक बना देते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि वररुचि एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण के निर्माणकाल में 'त्स' की जगह सर्वत्र 'छ' वाला ही प्रयोग होता था, किन्तु हेमचन्द्र के समय तक आते-आते 'उत्सुकः' तथा 'उत्सवः' इन दोनों शब्दों के स्थान में 'उच्छुओ' और 'उच्छवो' के अतिरिक्त 'उसुओ' और 'ऊसवो' के रूप में भी प्रयोग होने लगा था ।
(ख) 'चकारे हल् च लुप्यते'।
अर्थात् संस्कृत में प्रयुक्त 'च' में हल अंश का लोप कर प्राकृत में 'अ' मात्र प्रयुक्त होता है । इस नियम का उपजीव्य आ० वररुचि का सूत्र “कगचजतदपयवां प्रायो लोप:'' है ।
आ० हेमचन्द्र ने भी केवल लोपः के स्थान में लुक शब्द देकर सूत्र के अन्य अंशों को यथावत् रखा है, किन्तु आ० वररुचि के सिद्धान्तानुसार जहाँ हल् अंश का लोप हो जाने पर 'अ' रहता है और 'नीचः' आदि से 'जीओ' आदि प्रयोग बनते हैं । वहाँ आ० हेमचन्द्र के अनुसार अवशिष्ट 'अ' की जगह पर "अवर्णो यश्रुतिः" (८-१-१८०) सूत्र से 'य' करके 'नीयों' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
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