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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
मुख्य प्रक्रिया का निर्देश किया है, जैसा उन्होंने स्वयं भी कहा है । उनके समय में भी गौणरूप से अन्य रूपक प्रयोगों का व्यवहार अवश्य ही होता रहा होगा ।
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(ग) “स्तकारस्य त्थकारश्व" ।
अर्थात् 'स्', 'त' संयुक्त है, जिनमें ऐसे संस्कृत के शब्दों में 'स्त' की जगह प्राकृत में 'त्थ' का प्रयोग हो ।
इस प्रक्रिया पर भी वररुचि के व्याकरण का प्रभाव परिलक्षित वररुचि ने ऐसे शब्दों की सिद्धि में "स्तस्य थः " ( ३- १२) सूत्र का अपवादभूत 'स्तम्ब' तथा 'स्तम्भ' इन दोनों शब्दों को छोड़ अन्य सभी में 'थ' का विधान करता है । अतः द्वित्व होने पर 'त्थ' घटित रूप सिद्ध होता है ।
होता है। आचार्य प्रणयन किया है, जो शब्दगत 'स्त' के स्थान
इसकी पुष्टि हेमचन्द्र के "स्तस्यथोऽसमस्तस्तम्बे" (८-२-४५) 'स्तवे वा' ( ८-२-४६ ) "पर्यस्ते थटौ” (८-२-४७ ) इन सूत्रों से होती है। सूत्रों का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है'समस्त' और 'स्तम्ब' शब्द के अतिरिक्त शब्दों के 'स्त' की जगह 'थ' आदेश हो । 'स्तव' शब्दगत 'स्त' का विकल्प से 'थ' हो । 'पर्यस्त' शब्दस्थ 'स्त' का विकल्प से 'थ' एवं 'ट' हो । अतः 'स्तुति:' से 'धुई', स्तोकम् से 'थोअं' । स्तवः से 'थवो' । पर्यस्तः से 'पल्लत्थो' एवं 'पल्लट्टो' प्रयोग क्रमशः तीनों सूत्रों से सिद्ध होते हैं ।
(घ) ज्ञकारस्य ण इष्यते ॥७॥
यह पंक्ति ऐसा निर्देश करती है कि संस्कृत शब्दों में जहाँ 'ज्ञ' का प्रयोग होता है, वहाँ प्राकृत में 'ण' का प्रयोग हो ।
इसका स्रोत वररुचि का " म्नज्ञपञ्चाशत् पञ्चदशेषु णः " ( ३ - ४३) सूत्र है जो 'ज्ञ' के स्थान में 'ण' विधान करता है । अतः 'ज्ञानम्' से णाणं प्रयोग निष्पन्न होते हैं । किन्तु अपवाद के रूप में सर्वज्ञ की माँति समस्त शब्दगत 'ज्ञ' में 'ञ' का 'सर्वज्ञ सदृशेषु ञः '' (३-५) से लोप कर 'सव्यज्जो' आदि प्रयोग बनते हैं ।
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हेमचन्द्र ने भी नज्ञो : ( ८-२ - ४२ ) सूत्र की रचना कर पूर्वांश का समर्थन किया, परन्तु उन्होंने फिर एक सूत्र "ज्ञो ञः " ( ८-२-८३) से 'ज्ञ' के 'व्' का पाक्षिक लोप विधान कर सभी प्रयोगों को वैकल्पिक बना दिया है । अतः वररुचि एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण के अनुसार सिद्ध एकमात्र 'गाणं' इनके मत में 'जाणं' का वैकल्पिक रूप बन गया, अर्थात् ज्ञानम् के लिए 'णाणं' तथा 'जाणं' दोनों प्रयोग निष्पन्न हुए ।
८. क्वचित्खकारस्य तथा थकारस्य तथा क्वचित् ।
धकारस्य तु वक्तव्यः भकारस्य ह इष्यते ||८||
विष्णुधर्मोत्तरपुराण के इस पद्य का अभिप्राय अपरिष्कृत पदसंयोजन के कारण ख, थ एवं 'ध' का पाक्षिक रूप से तथा 'भ' का नित्यरूप से 'ह' हो, ऐसा मालूम पड़ता है । इस प्रसंग में आ० वररुचि ने अपने " खघथधमां ह: " ( २ - २२) इस सूत्र से अयुक्त और अनादि ख, घ, थ, ध एवं म के स्थान में बहुल प्रकार से हकारादेश का विधान किया है ।
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