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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण- एक तुलनात्मक विवेचन
(ख) ककारः पदमध्योऽत्र वक्तव्यो हल् विवर्जितः || ६ ||
इसका अभिप्राय यह है कि पद के बीच में प्रयुक्त 'क' में हल्भाग (क) का लोप कर 'अ' मात्र शेष रखकर प्रयोग करना चाहिये ।
इस सिद्धान्त के भी उपजीव्य आ० वररुचि हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थ में "कगचजतदपयवां प्रायो लोपः” (२ - २ ) इस सूत्र का ग्रथन किया है । इसका अर्थ यह है कि अयुक्त एवं अनादि सूत्र पठित जो ये नौ वर्णं इनमें स्वर को छोड़कर केवल हल् का प्रायः लोप हो जाता है | अतः लोकः, नीचः आदि में हल् 'क्' एवं 'च' का लोप कर प्राकृत में 'लोओ' एवं जीओ प्रयोग होते हैं ।
हेमचन्द्र भी " कगचजतदपयवाँ प्रायो लुक् " (८ - १ - १७७ ) इस सूत्र से उक्त सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं ।
७ (क) “ नकारस्य णकारः स्यात्" ।
अर्थात् 'न' का प्राकृत में ण के रूप में प्रयोग हो ।
त्व प्रतिपादन के लिए वररुचि ने 'नो णः ' (२- ) सूत्र का प्रणयन किया है, जो आदि मध्य या अन्त कहीं भी स्थित 'न' का णत्व विधान करता है । अतः नाथः, जनकः एवं 'नयनम्' में 'न' का णत्व कर 'णाहो', 'जणओ' एवं 'णअणं' प्रयोग निष्पन्न होते हैं ।
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इस प्रसंग में हेमचन्द्र ने थोड़ी भिन्नता प्रदर्शित की है । इनका भी सूत्र "नो णः " ( ८-१-२२८) ही है, किन्तु इन्होंने इसका अर्थ यह किया है कि आदि से भिन्न स्वर से परे जो असंयुक्त 'न' उसका 'ण' हो ।
(ख) "क्षकारस्य 'ख' इष्यते ।"
इसका तात्पर्य यह है कि प्राकृत में 'क्ष' की जगह 'ख' का प्रयोग हो ।
इसका आश्रय वररुचि का सूत्र "स्कष्कक्षाणां खः " ( ३- २९) है जो 'स्क', 'ष्क' एवं 'क्ष' का "ख" करने का निर्देश करता है । अत: 'अक्षर' से 'अक्खरो' आदि प्रयोग बनते हैं । उन्होंने कुछ शब्द विशेष के 'क्ष' की जगह नित्य रूप से तथा कुछ की जगह विकल्परूप से 'छ' का भी विधान किया है। अतः 'वक्षः' से वच्छो तथा क्षणः से छणो, खणो आदि प्रयोग बनते हैं ।
हेमचन्द्र ऐसे स्थलों के लिए अपने सूत्र में 'झ' का भी समावेश कर "क्षः खः क्वचित्तु छझी (७-२-३) के रूप में उपस्थित करते हैं । अतः जहाँ वररुचि के सिद्धान्तानुसार 'क्ष' की जगह 'ख' के अतिरिक्त 'छ' का विधान हुआ, वहाँ हेमचन्द्र के 'ख', 'छ' एवं झ का भी विधान होता है । अतः क्षीणः से खीणो, प्रयोग निष्पन्न होते हैं ।
अनुसार 'क्ष' के स्थान पर
छीणो तथा झीणो ये तीनों
कतिपय संयुक्त 'क्ष' के स्थान में वररुचि एवं हेमचन्द्र दोनों ने ही 'म्ह' एवं 'ह' का विधान किया है । अतः तीक्ष्णम् से तिन्हं तथा 'पक्ष्मा' से 'पम्हा' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती दोनों आचार्यों के साधक सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मार्कण्डेय मुनि ने
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