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46 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
से क्रमशः पउमं, पोम्मं तथा छउमं, छम्म ये दो-दो रूप बनते हैं, जो वररुचि एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण के नियम से भिन्न हैं। इससे अनुमान होता है कि हेमचन्द्र के समय तक आते-आते इन शब्दों के प्रयोग में थोड़ा अन्तर यह हो गया कि इनमें अन्तिम व्यञ्जन से पूर्व उकार का आगम होता रहा, किन्तु पूर्वस्थ व्यंजन 'द्' का लोप हो गया ।
(ख) तनौ युक्तौ पृथक्कृत्वा यणौ कार्यावसंशयम् ॥५॥
विष्णुधर्मोत्तरपुराण में वर्णित प्राकृतभाषा-परिभाषा की इस पंक्ति का आशय यह है कि जहाँ 'त' एवं 'न' ये दोनों वर्ण संस्कृत में संयुक्त रूप में प्रयुक्त होते हैं, वहाँ प्राकृत में 'त' की जगह 'य' एवं 'म' के स्थान में 'ण' करके प्रयोग करना चाहिए ।
इस प्रसंग में आ० वररुचि के व्याकरण को देखने से यह ज्ञात होता है कि उक्त प्रक्रिया इनके व्याकरण पर आश्रित नहीं है, क्योंकि वररुचि का सूत्र है "क्लिष्टश्लिष्ट क्रियारत्नशाङ्गेषु तत्स्वरः पूर्वस्य" (३-५८) जिसका अभिप्राय यह है कि-सूत्रपठित शब्दगत संयुक्त वर्णों का विकर्ष हो और वह स्वरहीन वर्ण वैसे शब्द से युक्त हो. जैसे के साथ संयुक्तावस्था में रहा हो। अतः रत्नशब्दगत 'ल' में विकर्ष होने के बाद 'त्' 'अ' से युक्त हो जाता है तथा 'न' का णत्व कर रदण प्रयोग बनता है। जो मार्कण्डेय मुनिसम्मत 'रयण' प्रयोग से भिन्न रूपक है।
किन्तु हेमचन्द्र उक्त पंक्ति का समर्थन करते हैं । उनके मतानुसार "क्ष्माश्लाघारत्नेन्त्यव्यञ्जनात्" (८-२-१०१) इस सूत्र के द्वारा अन्तिम व्यंजन से पूर्व अद् हो जाता है तथा "कगचजतदपयवां प्रायो लुक्" (८-१-१७७) सूत्र से 'त्' का लोप होने पर "अवर्णो यश्रुतिः " (८-१-१८७) इस सूत्र से 'अ' की जगह 'य' आ जाता है, इसके बाद 'न' का णत्व करके 'रयण' प्रयोग बनता है। इससे अनुमान होता है कि वररुचि के बाद और विष्णुधर्मोत्तरपुराण की रचना से पूर्व इसके प्रयोग में थोड़ा विकास हुआ और 'रदण' से 'रयण' प्रयोग होने लगा।
६ (क) तययोगे तकारस्य चकारस्त्वभिधीयते । ___ अर्थात् संस्कृत में जहाँ 'त' 'य' के साथ संयुक्त हो वहाँ प्राकृत में 'त' की जगह 'च' हो जाता है।
इस प्रक्रिया का आधार वररुचि को माना जा सकता है। उन्होंने “त्यथ्यद्यानां चछजाः" (३-२७) इस सूत्र से इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। सूत्र का अभिप्राय यह है कि 'त्य', 'थ्य' एवं 'द्य' के स्थान पर क्रमशः 'च', 'छ' एवं 'ज' आदेश हो। अतः 'सत्यम्' तथा नित्यम्' में 'स्य' की जगह उक्त सूत्र से 'च' आदेश कर "शेषादेशयोद्वित्वमजादौ" (३-४९) इस मूत्र से 'च' का द्वित्व कर 'सच्चं' तथा द्वित्व एवं णत्व करके 'णिच्चं' प्रयोग बनते हैं।
हेमचन्द्र भी अपवाद के रूप में 'चत्य' शब्द को रखकर अतिरिक्त सभी शब्दों में 'य' के साथ संयुक्त 'त्' के स्थान में 'च' का विधान कर इस प्रक्रिया का समर्थन करते हैं। इनका सूत्र है “त्यो चैत्ये" (८-२-१३)।
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