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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण-एक तुलनात्मक विवेचन 43 "नाव्यावः” (८-१-१६४) आदि सूत्र 'औ' के स्थान में 'ओ' उत्, अउ, आ एवं आव आदि आदेश करते हैं, जिनमें ऐ एवं ओ का प्राकृत में प्रयोगाभाव निर्दिष्ट होता है ।
३ (ख) दवयोगे दकारोऽत्र' दगयोगे तथैव च ॥ ३ ॥
अर्थात् जहाँ 'द' और 'व' संयुक्त हो, वहाँ द् का लोप हो तथा जहाँ द् और 'ग' संयुक्त हो वहाँ भी 'द' का ही लोप हो।
१. श्लोक के तृतीय चरण में कुछ पाठभेद मिलते हैं, पूर्वार्द्ध में (१) दृढयोगे (२) डॉ० प्रियबालाशाह द्वारा कल्पित “डगयोगे तथा उत्तरार्द्ध में (२) दकारोऽत्र (३) वकारोऽत्र (२) डा० प्रियबालाशाह द्वारा कल्पित" डकारोऽत्र ।
पहला पाठ है दृढयोगे, यह पाठ असंगत जान पड़ता है, क्योंकि दृ एवं ढ दोनों वर्ण संयुक्त हों, ऐसा कोई शब्द नहीं दीखता, दूसरी बात लुप्यमान के रूप में वकारोऽत्र, दकारोऽत्र अथवा डा० शाह द्वारा कल्पित डकारोऽत्र ये ही तीनों पाठ हैं, जिनमें से "दृढ' में कोई वर्ण नहीं है, फिर लोप होगा किसका ? "सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद् विशेषणमर्थवत्' अतः 'दृढयोगे' यह पाठ मानना समुचित नहीं है ।
दूसरा पाठ डा० प्रियबाला शाह द्वारा कल्पित "डगयोगे डकारोत्र" है। किन्तु ऐसा पाठ रखने से द् एवं ग के संयुक्त रहने पर 'द्' का ही लोप हो, इस अर्थ के प्रतिपादक "दगयोगे तथैव च" इस चतुर्थ चरण की संगति नहीं बैठती है, क्योंकि "डगयोगे डकारोऽत्र' पाठ के आधार पर षड्गः शब्दगत संयुक्त 'ड्ग' में 'ड' का लोप तो हो जायेगा, परन्तु उद्गम: आदि शब्दों में 'द्ग' के संयुक्त रहने पर श्लोक में प्रयुक्त "तथैव च" पद पूर्ववत् इस अर्थ का प्रतिपादन करता हुआ 'ड्' का बोष करायेगा, जो यहाँ है ही नहीं और है 'द्' जिसका लोप प्राप्त नहीं होगा।
___ अथ च काल्पनिक 'डगयोगे' पाठ की संगति के लिए डकारोऽत्र रूप कल्पनागौरव भी हो जाता है । अतः यह पाठ भी उचित नहीं प्रतीत होता है ।
__एक पाठ में “वकारोऽत्र" भी कहा गया है जिसका तात्पर्य होगा कि संयुक्त रहने पर व का लोप हो। अब जिज्ञासा होगी कि किसके साथ संयुक्त रहने पर और तब इस श्लोक के क्रम के अनुसार किसी एक वर्ण का आक्षेप करना होगा, ऐसी स्थिति में द्विधा से दिहा, दुहा, दोहा । द्विरदः से दिरओ, द्वारम् से दुवारं, दारं, देरं । द्वितीयः से दुइओ, दुइअं। द्विवचनं से दोवयणं, दुवयणं । द्विविधः से दुविहो। द्वादशाङ्गम् से दुवालसंगे। 'द्वे' से दुणि, दुवे। द्विजातिः से दुआईं। द्विगुणः से दुउणो। द्विमात्रः से दुमत्तो। द्विरेफः से दुरेहो आदि संयुक्त व वाले प्रयोगों में व के लोप के अनुरोध से जहां कुछ विद्वानों ने तृतीय चरण के पूर्वाद्धं में "दृढयोगे" या "डग योगे" की कल्पना की है, वहाँ आक्षिप्त द् "बलीयसा दुर्बलो बाध्यते" न्याय से उन दोनों को बाध कर दवयोगे पाठ को पदासीन कर देता है।
अब प्रश्न उठता है कि पद्य के द्वितीय चरण में प्रयुक्त “तथैव पद कितने अर्थ को अभिव्याप्त करता है ? यदि केवल (लोपमायाति अर्थात्) लोप को प्राप्त हो" इतना
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