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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
इस विषय का प्रतिपादक आ० वररुचि का सूत्र "उपरि लोपा कगडतदपषसाम्" (३-१) है। इसका अभिप्राय यह है कि सूत्र पठित आठो वर्गों में से कोई वर्ण यदि किसी अन्य वर्ण के साथ पूर्वस्थ होकर संयुक्त हो तो उक्त उस पूर्वस्थ वर्ण का लोप हो। अत: द्वादशः, मुद्गः, उद्गमः आदि प्रयोगों में क्रमशः दोनों वर्ण (व एवं ग) के साथ संयुक्त पूर्वस्थ 'द' का लोप होने पर 'वारह' मुग्गो' एवं 'उग्गमो' आदि प्रयोग बनते हैं।
इस नियम के समर्थन में हेमचन्द्र “कगटडतदपशषस-कपामूवं लुक् (८-२-७७) इस सूत्र का प्रणयन करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्रपठित वर्ण यदि पूर्वलग्न संयुक्त हों तो इनका लोप हो। अतः उद्विग्नः, द्विगुणः से क्रमशः उव्विग्गो, विउणो तथा गद्गदम्, मुद्गरः से गग्गरं, मोग्गरो आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं जो 'व' एवं 'ग' के साथ संयुक्त 'द' के लोप का समर्थन करते हैं।
यहां यह ध्यातव्य है कि 'द', 'व' के संयुक्त रहने पर बहुत प्रयोगों में 'व' का लोप भी देखने में आता है। अतः उक्त पंक्ति का आशय ऐसा अनुमित होता है कि शब्द के बीच में यदि 'द्' 'व' के साथ संयुक्त हो तो उनमें पूर्वस्थित द् का लोप हो।
डा० पिशेल आदि विद्वानों ने भी शब्द के मध्य में ही 'द्' 'व' के संयुक्त रहने पर नियमित रूप से द् का लोप माना है।
इसका अपवाद आपद्वारम् के स्थान में (व का लोप कर) 'अवछालं' रूप देखने में आता है, जिसे काले या क्षेत्र से प्रभावित प्रयोग माना जा सकता है।
४ (क) गययोगे यकारोऽत्र लोपमायाति नित्यदा ।
अर्थात् जिन संस्कृत शब्दों में 'ग' 'य' के साथ संयुक्त हो उनमें 'य' का लोप कर प्राकृत में प्रयोग करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि क, ग, ट, ड आदि वर्ण जब
ही प्रतिपादन करे तब तो "वकारोऽत्र" यह पाठ मानने में कोई आपत्ति नहीं, किन्तु पदविन्यास पर ध्यान देने से परिलक्षित "जिस प्रकार संयुक्त दो वर्गों में एक वर्ण का लोप पहले हुआ है, वैसे ही दो वर्षों में एक वर्ण का लोप यहाँ भी हो" यह अर्थ माना जाय तब तो उद्गमः आदि प्रयोगों में आदि में स्थिर 'द्' का ही लोप देखने से "वकारोऽत्र" न मानकर “दकारोऽत्र" ही मानना युक्तिसंगत जान पड़ता है ।
अतः यहाँ 'दृढ' या 'डग' की जगह 'दव' तथा वकारोऽत्र आदि की जगह "दकारोऽत्र' वाला “दवयोगे दकारोऽत्र दवयोगे तथैव च" जिसका अर्थ होगा-द एवं व के संयुक्त रहने पर 'द्' का लोप हो और 'द' एवं 'ग' के संयुक्त रहने पर भी वैसा ही (अर्थात् द् का ही लोप हो) यही मूल पाठ प्रतीत होता है।
यह पाठ द्वादशः । द्वितीयः । द्विगुणः । द्वारम् । द्वे । द्वेष्यः एवं उद्गमः के स्थान में प्राकृत के लुप्तदकारक वारह । वीओ। विइओ । विइज्जो । विउणो । वारं । विणि। वेसो तथा उग्गमो आदि प्रयोगों से समर्थित होने के साथ ही विष्णुधर्मोत्तर पुराण के उक्त पद्यगत "तथैव च" इस पद की भी संगति बैठाता है।
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