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________________ 42 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 (ख) नासिक्याश्च तथा नृप। रेफश्च सयवो राजन् संयोगे नास्ति कहिचित् ॥२॥ इसका अभिप्राय यह है कि संस्कृत के संयुक्त नासिक्य (इन् न म्) र य एवं व का प्रयोग प्राकृत में नहीं होता है। यह अभिव्यक्ति आ० वररुचि के 'अधोमनयाम्" (३-२), "सर्वत्र लवराणाम्" (३-३), "सर्वज्ञ सदृशेषु नः" (३-५) आदि सूत्रों से क्रमशः म्, न्, य, व, र् एवं ञ् के लोप से होती है, जो भिन्न-भिन्न रूप में संयुक्त रहने पर होता है। अतः तिग्मम्, अग्निः, कन्या, पक्वम्, सर्पः, सर्वज्ञ: आदि प्रयोगों में क्रमशः म्, न, य, व् र् एवं ब् का लोप कर तिग्गं, अग्गी, कण्णा, पिक्कं सप्पो आदि शब्द सिद्ध होते हैं। हेमचन्द्र भी "अधोमनयाम्" (८-२-७८) "सर्वत्रलवरामचन्द्रे" (८-२-२३) आदि सूत्रों से उक्त तथ्यों का समर्थन करते हैं। किन्तु हेमचन्द्र के कतिपय सूत्र वैकल्पिक हैं। अतः उनके सिद्धान्तानुसार उक्त संयुक्त वर्णों का पाक्षिक लोप होने के कारण तिग्गं, तिग्मं तथा णाणं, जाणं आदि उभयविध प्रयोग निष्पन्न होते हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य हेमचन्द्र ने लोप के अतिरिक्त "ङ न ण नो व्यञ्जने” (८-१-२५) इस सूत्र से नासिक्य ङ, ञ, ण एवं न का अनुस्वार विधान करके भी नासिक्य वर्गों के अप्रयोग की सूचना दी है, किन्तु फिर उन्होंने "वर्गेऽन्त्यो वा" (८-१-३०) (वर्ग सम्बन्धी अक्षरों के परे रहने पर अनुस्वार के स्थान पर विकल्परूप से सामीप्य सम्बन्ध के कारण उस वर्ग का अन्तिम अक्षर हो) इस सूत्र के द्वारा अनुस्वार का परसवर्ण विधान करते हुए उक्त नियम को वैकल्पिक सिद्ध कर दिया है। ३. (क) ऐकारश्च तथौकारः पदमध्ये महाबल। पूर्वोक्त क्रियान्वित इस पंक्ति का आशय यह है कि पद अर्थात् शब्द के बीच में 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग प्राकृत भाषा में नहीं होता है। आचार्य वररुचि के अधोनिर्दिष्ट विचार के साथ उक्त अंश की तुलना की जा सकती है। उन्होंने "ऐत एत्” (१-३५), "दैत्यादिष्व इ." (१-६६), "देवे वा” (१-३७), इत्सैन्धवे (१-३८), ई धैर्ये (१-३९), औत ओत् (१-४१), पौरादिष्व उः (१-४२), "उत्सौन्दर्यादिषु' (१-४३) आदि सूत्रों से 'ऐ' का 'ए', 'अइ', इ, ई तथा 'औ' का 'ओ', अउ एवं उ विधान किया है। अतः संस्कृत के शैलः, कैटमः, देवम, सैन्धवम्, धैर्यम् आदि के स्थान में प्राकृत में क्रमशः सेलो, कइढवो, देव्वं, दइवं, सिन्धवं, धीरं तथा कौमुदी, पौरुषम्, सौन्दर्यम् आदि के स्थान में कोमुई, पउरुसं, सुन्सेरं आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं। इस विषय की सम्पुष्टि में हेमचन्द्र के निम्नलिखित सूत्र देखे जा सकते हैं "ऐत एत्" (८-१-१४८), "इत्सैन्धवशनैश्चरे" (८-१-१४९), "सैन्ये वा" (८-१-१५०), 'अइर्दैत्यादौ च' (८-१-१५१), "वैरादौ" (८-१-१५२), “एच्च देवे" (८-१-१५३), "उच्चर्नीस्य अः" (८-१-१५४), "ईद् धैर्ये" (८-१-९५५) इनमें कुछ नित्य रूप से और कुछ विकल्प रूप से ऐ का ए, इ, अइ, अः एवं ईत् विधान करते हैं। इसी प्रकार "औत ओत्" (८-१-१५९) "उत् सौन्दर्यादौ" (८-१-१६०), कोशेयके वा (८-१-१६१), "अ उः पौरादौ च” (८-१-१६२), "आच्च गौरवे" (८-१-१६३), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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