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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण-एक तुलनात्मक विवेचन मार्कण्डेय मुनि वज्र से कहते हैं कि प्राकृत भाषा में ऋ, ऋ, लु, लु ये चार वर्ण नहीं होते हैं ? (क) "ऋ ऋ ल ल न सन्त्यत्र” ऋ ऋ "इस प्रसंग में आचार्य वररुचि ने" ऋतोऽत् (१-२७) सूत्र से 'ऋ' का अत्व, “अयुक्तस्यरिः” (१-२८) एवं "क्वचिदयुक्तस्यापि" (१-२९) इन दोनों सूत्रों से 'रि', "इदृष्यादिसु" (१-३०) से 'इकार' का तथा "उदृत्वादियु" (१-३१) से 'उकार' का विधान किया है। कृष्णः से कण्हो, ऋणम् से 'रिणं' तादृश से तारिसो, कृशः से किसो, वृत्तं से वुत्तं आदि इनके उदाहरण हैं।
आचार्य हेमचन्द्र भी "ऋतोऽत्” (८-१-१२६) 'इत्कृपादौ' (८-१-१२८) आदि सूत्रों से "वररुचिप्रतिपादित' सिद्धान्तों का समर्थन करते हैं। तथा "आत्कृशामृदुकमृदुत्वे वा" (८-१-१२७) से आत्व, “उद्वदोन्मृषि" (८-१-१३६) से उत्व, ऊत्व एवं ओत्व, “इदेदोद्वृन्ते" (८-१-१३९) से इत्व, एत्व तथा ओत्व, एवं “आदृते ढिः" (८-१-१४३) सूत्र से ऋ का विधान कर कृशा से कासा, मृषा से मुसा, मूसा एवं मोसा, वृन्तं से विण्टं, वेष्टं एवं वोटं तथा आदृतः से 'आढिओ' आदि प्रयोगों का निष्पादन करते हैं, जो वररुचि से अधिक हैं।
(ख) “ल ल"-आचार्य वररुचि का सूत्र है : "लतः क्लुप्त इलिः" (१-३३) इस सूत्र के द्वारा लु के स्थान में "इलि" आदेश होता है और 'क्लृप्तं' से 'किलित्तं' प्रयोग बनता है।
आ० हेमचन्द्र अपने सूत्र में "क्लुन्न" शब्द का भी समावेश कर "तृत इलिः क्लुप्त क्लुन्ने" (८-१-१४५) ऐसा सूत्र करते हैं, जिससे उक्त दोनों आर्द्रवाची शब्दों के 'लु' की जगह 'इलि' आदेश होकर 'किलित्तं' एवं 'किलिन्न' रूप बनते हैं।
इस प्रकार ऋ, ऋ, लु, लु का प्रयोग प्राकृत में नहीं होता है, इसे वररुचि एवं हेमचन्द्र दोनों ही आचार्य सिद्ध करते हैं, जो क्रमशः विष्णुधर्मोत्तरपुराण के उपजीव्य तथा समर्थक प्रतीत होते हैं।
(ग) न चोष्माणो शषावुभौ ॥१॥
अर्थात् उष्मा (संज्ञक) 'श' एवं 'ष' का प्रयोग प्राकृत में नहीं होता है । इसका आधार वररुचि का सूत्र “शषोः सः" (२-३९) है, जिसका अभिप्राय यह है कि तालव्य 'श' और मूर्धन्य 'ष' की जगह सर्वत्र दन्त्य 'स' का प्रयोग हो। अतः संस्कृत के 'शशाङ्कः' का प्राकृत में ससंको एवं 'तुषारः' का 'तुसारो' प्रयोग होता है।
___ हेमचन्द्र का सूत्र भी "शषोः सः" (८-१-२६०) ही है, जिससे उक्त सिद्धान्त की परिपुष्टि होती है।
२. (क) “मकारहीनाश्च तथा" '' इसका आशय यह है कि प्राकृत में (अन्तिम) म् का प्रयोग नहीं हो। यह प्रक्रिया 'वररुचि के "मो बिन्दुः" (४-११) सूत्र पर आश्रित है। सूत्र का अर्थ यह है कि संस्कृत शब्दों के अन्त में आने वाले हलन्त 'म्' का प्राकृत में (बिन्दु) अनुस्वार हो जाता है। अतः धनम्, वनम् आदि के स्थान में धणं, वणं आदि प्रयोग होते हैं। - आ० हेमचन्द्र भी "मोऽनुस्वारः" (८-१-२३) सूत्र से इसका समर्थन करते हैं।
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