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________________ 36 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 हैं। जैन आचार-दर्शन अपने अनेकांतवाद और अनाग्रह के सिद्धान्त के आधार पर इन वैचारिक संघर्षों का निराकरण प्रस्तुत करता है । अनेकांत का सिद्धान्त वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्व देता है, जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को। उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं। जैन आचार-दर्शन उपर्युक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार-दर्शन में तीन सिद्धांत प्रस्तुत करता है। सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने अहिंसा एवं सामाजिक समता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए वह परिग्रह एवं उपभोग के परिसीमन का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षों के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकांत के सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं। ये सिद्धान्त क्रमशः सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं । लेकिन ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत् ही है। जैन आचार-दर्शन मानसिक तनावों एवं विक्षोभों के निराकरण के लिए भी विशेष रूप से विचार करता है, क्योंकि यदि व्यक्ति का मानस विक्षोम एवं तनावयुक्त है तो सामाजिक जीवन भी अशान्त होगा। ४. मानसिक वैषम्य-मानसिक वैषम्य मनोजगत् में तनाव की अवस्था का सूचक है। जैन आचार-दर्शन ने राग-द्वेष एवं चतुर्विध कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना है । क्रोध, मान, माया और लोम ये चारों आवेग या कषाय हमारे मानसिक समत्व को मंग करते हैं। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हम उनके मूल में कहीं न कहीं जैन-दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नौ कषायों (आवेगों और उप आवेगों) की उपस्थिति ही पाते हैं। जैन आचार-दर्शन कषाय-त्याग के रूप में हमें मनोजगत् के तनाव के निराकरण का सन्देश देता है। वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय-लाभ करते हुए आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे ही हमारे व्यक्तित्व की पूर्णता का प्रकटन भी होगा । जैन दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं, जो इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती हैं। इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में सम्यक दृष्टिकोण का उद्भव होता है । द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या गृहस्थ उपासक की श्रेणी में आता है । तृतीय रूप पर विजय करने पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है । कषायों की पूर्ण समाप्ति पर एक पूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटन हो जाता है । इस प्रकार जैन आचार-दर्शन राग-द्वेष एवं कषाय के रूप में हमारे मानसिक तनावों का कारण प्रस्तुत करता है और कषायजय के रूप में मानसिक समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है। प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि उसका जीवन शान्त एवं सुखी हो। लेकिन मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषाय-चतुष्क-जनित हैं। अतः शान्त और सुखी जीवन के लिए मानसिक तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है । क्रोधादि कषायों पर विजय-लाभ करके समत्व के सृजन के लिए हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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