________________
34 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं के कारण सारा सामाजिक जीवन दूषित होता है । जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है । अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन अपने साधना-मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है।
२. आर्थिक वैषम्य आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है । चेतना का जब भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है, तब उसे अनेक वस्तुएं अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं । यही आवश्यकता जब आसक्ति में बन जाती है, तब एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है, इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता के बीज का वपन होता है। जैसे-जैसे एके ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता है । आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह-भावना ही अधिक है । कहा यह जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है और शायद विज्ञान हमें उस दिशा में सहयोग दे सकता है, लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं । उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि “गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं । पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने आप दूर हट जायेगी। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो । परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त किया जा सकता है । जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक समता नहीं आ सकती।
आर्थिक वैषम्य का निराकरण असंग्रह को वृत्ति से ही सम्भव है और जैन-दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन आचार-दर्शन में गृहस्थ-जीवन के लिए भी जिस परिग्रह एवं उपभोग-परिभोग के सीमांकन का विधान किया गया है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है । आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने अपने व्रत-विधान में किया था। जैन दर्शन सम्पदा के उत्पादन पर नहीं अपितु उसके अपरिमित संग्रह और उपभोग पर नियन्त्रण लगाता है ।
आर्थिक वैषम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है । यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता की बात करना चाहते हैं, तो हमें व्यक्तिगत उपभोग एवं सम्पत्ति की सीमा का निर्धारण करना ही होगा। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है । जैन दर्शन का अपरिग्रह-सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सिद्ध होता है । वर्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी समाज की रचना के रूप में प्रस्तुत किया, वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं के निराकरण का एक महत्वपूर्ण साधन है, तथापि उसको मूलभूत कमी यही है कि वह मानव-समाज
१. जैन प्रकाश, ८ अप्रैल १९६९, पृ० ११ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org