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जैन नीतिदर्शन को सामाजिक सार्थकता
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तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता । रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार राष्ट्र ही क्यों न हों, सच्चे अर्थों में नैतिकता नहीं हो सकती । सच्चा नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन आचार-दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सामाजिक जीवन के लिए एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है । यही एक ऐसा आधार है, जिस पर सामाजिक नैतिकता को खड़ा किया जा सकता है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है । सराग नैतिकता कभी भी सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं कर सकती है । स्वार्थों के आधार पर खड़ा सामाजिक जीवन अस्थायी ही होगा ।
पुष्टि का प्रयत्न है ।
दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहम् भाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है । शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्व हैं, इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है । शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता के मूल में यही कारण है । वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है । जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है । जैन आचार दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतन्त्रता को समाप्त करता है । दूसरी ओर जैन-दर्शन का अहिंसा - सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है । अत: अहिंसा का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध आचार-दर्शन जहाँ एक ओर अहिंसा के सिद्धान्त के आधार पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वर्णभेद, जातिभेद एवं ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करते हैं ।
यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के कारणों का विश्लेषण करें तो यह पायेंगे कि उसके मूल में रागात्मकता ही है । यही राग एक ओर अपने और पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है तथा दूसरी ओर अहं-माव का प्रत्यय उत्पन्न कर सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच की भावनाओं का निर्माण करता है । जो सामा
इस प्रकार राग का तत्व ही मान के रूप में एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है, जिक विषमता को भी उत्पन्न करता है । यह राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं को भी विकसित करती है । इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता से उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं - १. संग्रह (लोभ), २. आवेश (क्रोध), ३. गवं ( बड़ा मानना ), और ४. माया (छिपाना ) । जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, यही चारों अलग-अलग रूप में सामाजिक विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं । १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रमाणिकता, स्वार्थंपूर्ण व्यवहार, क्रूर व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं । २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होते हैं । ३. गवं की मनोवृत्ति के कारण घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार और क्रूर व्यवहार होता है । इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है ' ।
इस प्रकार
१. देखिये - नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २ ।
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