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24 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
अविज्ञप्ति जो आवरण नाम से प्रतिपादित की गयी है, वह चिद्रूप होगी या अचिद्रूप ? चिद्रूप तो हो नहीं सकती; क्योंकि उसकी स्वीकृति नहीं होती है। यदि अचिद्रूप मानो तो हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं है; क्योंकि वह कार्य शरीर का ही दूसरा नामकरण हो जायगा ।
नाम रूप से षडायतन नहीं हो सकता है—नाम रूप से षडायतन होना जो कहा गया है वह भी बिना विचार किया गया कथन है। षडायतन का अन्तर्भाव रूपस्कन्ध में ही हो जाने से इसका पृथक कथन करने में कोई प्रयोजन नहीं है। उसमें अन्तर्भूत होने पर भी इसका पृथक् प्रतिपादन करने पर प्रतिपादन करने वाला पहले बिना कुछ विचार किये कार्य करने वाला हो जायगा।
विषय इन्द्रिय और विज्ञान का समूह स्पर्श है, इत्यादि कथन अपनी प्रक्रिया के प्रदर्शन करने वाले ढंग की भाषा मात्र होने से उसका उपयोग कहीं नहीं है। अतः उसकी उपेक्षा की जाती है।
पृथिव्यादिचतुष्टयविषयक विचार-जो पृथ्वी आदि चार धातुएँ प्रतिपादित की हैं, उनके विषय में कोई विवाद नहीं है। जो पृथिवी आदि प्रतीति से सिद्ध हैं तथा अनेक प्रकार से अर्थ की उत्पत्ति के साधन हैं, उनके कथन करने में विवाद का अभाव है। तदुत्पत्ति की प्रक्रिया में जो कहा गया है कि उत्पन्न होता हुआ परमाणु अष्टद्रव्यवाला उत्पन्न होता है, चार महाभूत और रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार उपादान आठ द्रव्य हैं । जिस प्रकार से सांख्य दर्शन में एक ही शब्दादि सत्त्व, रज और तमोरूप होता है, इसी प्रकार हमारे मत में परमाणु अष्टद्रव्यमय है, आपका यह कथन अत्यन्त असङ्गत है। एक एक परमाणु में रूपादि सम्भव होने पर पृथिव्यादि मूलभूत असम्भव है। उन अष्टद्रव्यों की वहाँ शक्तिरूप से कल्पना होती है या स्कन्ध रूप से ? यदि शक्तिरूप से कल्पना होती है तो परमाणु अनन्त द्रव्य वाला क्यों नहीं होगा; क्योंकि उस परमाणु में अनन्त द्रव्यों का आरम्भ करने की शक्ति सम्भव है । यदि एक स्कन्ध रूप में कल्पना करो तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि एक परमाणु में स्कन्ध परिणाम असम्भव है। स्कन्ध परमाणुओं का समूह सिद्ध होता है ।
-विज्ञान धातुओं का खण्डन -अविकल्पक के अर्थसाक्षात्कारीपना सम्भव नहीं है; क्योंकि निर्विकल्पक स्वरूप से ही असिद्ध है। जो स्वरूप से अप्रसिद्ध होता है, वह अर्थसाक्षात्कारी नहीं होता है, जैसे-वन्ध्या के पुत्र का ज्ञान । अविकल्पकपने के रूप में अभिमत विज्ञान भी इसी प्रकार स्वरूप से असिद्ध है (न्या० कु० च० पृ० ५१)।
इस प्रकार वैभाषिक के द्वारा कल्पित द्वादशात्म प्रतीत्यसमुत्पाद का उसके वणित स्वरूप की अपेक्षा विचार करने पर वह व्यवस्थित नहीं होता है, अतः वैभाषिक मत वाले की संसार के विस्तार की रचनारूप लक्षणवाली अर्थक्रियाकारिता घटित नहीं होती है।
१. न्याय कुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९४ । २. वही पृ० ३९४ । ३. वही पृ० ३९४-३९५ । ४. न्यायकुमुदचन्द्र (प्र० भाग) पृ० ३९५ ।
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