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________________ वैभाषिक-मत-समीक्षा 25 निराकारज्ञान की प्रमाणता का खण्डन-वैमाषिक सम्पूर्ण संकल्प-विकल्पों के कल्पित आकारों से रहित हो रहे केवल शुद्ध ज्ञान को ही स्वीकार करते हैं। आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक में वैभाषिकों से प्रश्न किया है कि आप कल्पनाओं से रहित शुद्ध ज्ञान मानते हैं, यहाँ आप कल्पना का क्या अर्थ करते हैं ? वस्तु में जो धर्म विद्यमान नहीं है, उस धर्म का थोड़ी देर के लिए वस्तु में आरोप करना कल्पना माना है या मन के केवल संकल्पविकल्पों को कल्पना इष्ट किया है अथवा वस्तु का स्वभाव कल्पना है ? पहिले और दूसरे पक्ष में सिद्धसाधन दोष है अर्थात् प्रथम दो कल्पनाओं से रहित ज्ञान को हम जैन भी समीचीन मानते हैं। यदि तीसरा पक्ष लोगे अर्थात् वस्तु के स्वभावों की कल्पना करोगे तब तो ऐसी कल्पनाओं से रहित ज्ञान को इष्ट करने पर लोकप्रसिद्ध प्रतीतियों से विरोध होगा। पुद्गल में ध्यान की असिद्धि-आदिपुराण के १२ वें पर्व में पुद्गलवाद अर्थात् आत्मा को पुद्गल मानने आले वात्सीपुत्रीयों के विषय में कहा गया है कि उनके मन में देह और पुद्गलतत्त्व के भेद-अभेद और अवक्तव्य पक्ष में ध्याता की सिद्धि नहीं हो सकती। अतः ध्यान की इच्छापूर्वक प्रवृत्ति नहीं हो सकती, सर्वथा असत् आकाशपुष्प में गन्ध आदि की कल्पना नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है कि पुद्गल रूप आत्मा यदि देह से भिन्न है तो पृथक् आत्मतत्त्व सिद्ध हो जाता है । यदि अभिन्न है तो देहात्मवाद के दूषण आते हैं। यदि अवक्तव्य है तो उसके किसी रूप का निर्णय नहीं हो सकता और उसे अवक्तव्य शब्द से भी नहीं कह सकते हैं। १. तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक माग-१ पृ० २८३ । २. वही पृ० २८५ । ३. तद्पुद्गलवादेऽपि देहपुद्गलतत्त्वयोः । तत्त्वान्यत्वाद्यवक्तव्यसंगराद्धयातुरस्थितेः ॥ दिध्यासापूर्विकाध्यानप्रवृत्तिात्र युज्यते । न चासतः खपुष्पस्य काचिद्गन्धादिकल्पना ।। (आदिपुराण २।२४५-२४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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