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________________ वैभाषिक मत - समीक्षा नैरात्म्यपना पदार्थ का स्वरूप नहीं है; क्योंकि सर्वथा नित्य के समान इसमें प्रमाण नहीं बनता है । रागादि को संस्कार कहना असङ्गत है— रागादिक संस्कार हैं, ऐसा जो कहा गया है, वह भी असङ्गत है; क्योंकि रागादिक की संस्काररूपता लौकिक और अलौकिक में तद्रूपतया प्रसिद्ध होने से कही जाती है अथवा व्युत्पत्ति मात्र से । प्रथम पक्ष ठीक नहीं है । लोक में और शास्त्र में वेगादि स्वभाव वाले संसार की ही प्रसिद्धि है । द्वितीय पक्ष भी असुन्दर है । जिनका संस्कार किया जाय, वे संस्कार हैं, इस प्रकार व्युत्पत्ति मात्र से रागादि के समान समस्त पदार्थों की संस्कारता का प्रसङ्ग आता है, वैसा होने पर अविद्या से ही समस्त पदार्थों की तद्रूपतया उत्पत्ति के प्रसङ्ग से प्रदर्शित की गयी, उस कारण भेद की प्रक्रिया नष्ट हो जायगी । इनकी पुण्यादिप्रकारता अत्यन्त दुर्घट है । रागादि का पुण्यादि नाम लोक में और शास्त्र में कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है । धर्मादि सुख के साधन के रूप में वहाँ प्रसिद्ध हैं । रागादि कारण का . कार्यं पूज्य होने से वे रागादि भी पुण्य कहलाते हैं, यह भी ठीक नहीं है । पुण्यादि का कारण रागादि होना असम्भव है, क्योंकि पुण्य का कारण आचरणविशेष है परम्परा से उसका कारण रागादिक मानने पर अविद्यादि भी निश्चित व्यवस्था का लोप हो जायगा ? | उस पुण्य का कारण हो जायेंगे । इस प्रकार से अतः रागादि लक्षणवाले संस्कारों से विज्ञान की प्रतिपक्षी हैं, यह बात दूसरे आचार्यों ने भी कही है संस्कार से विज्ञान का होना अज्ञान का विलास है— रागादि विज्ञान के प्रतिपक्षी हैं, उत्पत्ति असम्भव है । रागादि विज्ञान के । आत्मानुशासन में कहा गया है"विषयों में अन्धदृष्टिवाला यह व्यक्ति अन्धे से भी अधिक अन्धा है; क्योंकि अन्धा व्यक्ति तो केवल नेत्र से नहीं जानता है, किन्तु विषयान्ध किसी भी प्रकार से नहीं जानता हैं । विज्ञान के छह भेद आकाश कुसुम के समान हैं" - बौद्धों के द्वारा कल्पित इन्द्रियो - त्पन्न ज्ञान और विकल्प का खण्डन सविकल्पक की सिद्धि से हो जाता है । विज्ञान से नाम रूप को उत्पत्ति कहना अद्भुत है— रूपादि चतुष्टय लक्षणवाला नाम रूप विज्ञान से उत्पन्न होता है, यह बात असम्भव है । विज्ञान को ही नाम रूप की उत्पत्ति मानना ठीक है । विज्ञान नामरूप का उपादान होकर उसकी उत्पत्ति करता है या सहकारी भाव से उत्पत्ति करता है ? उपादान माव से उत्पत्ति नहीं करता है; क्योंकि इन्द्रिय और उसके अर्थं अत्यन्त विलक्षण हैं, अतः उसका उपादान होना असम्भव । जो जिससे विलक्षण होता है, वह उसका उपादान नहीं होता है । जैसे जल का उपादान अग्नि नहीं होती है । विज्ञान से इन्द्रियादिक अत्यन्त विलक्षण हैं । सहकारिभाव से भी नहीं कह सकते; क्योंकि इन्द्रियादि से विज्ञान की ही उत्पत्ति की प्रतीति होना सभी को इष्ट है । सभी अङ्गों के सहकारिभाव से विज्ञान से उत्पत्ति सम्भव होने पर नाम रूप ही विज्ञानप्रत्यय हो जायगा । 1 १. वही पृ० ३९३ । २. वही पृ० ३९३ | ४. आत्मानुशासन श्लो० ३५, न्याय कुमुदचन्द्र पृ० ३९३ । ५. न्याय कुमुदचन्द्र पृ० ३९३ । 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only ३. वही पृ० ३९३ । www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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