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________________ 22 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 भव- उपादान से ही पुनर्भव अर्थात् परलोक को उत्पन्न करने वाला कर्म होता है। इसे भव कहते हैं। यह कर्म मन, वचन और काय इन तीनों से उत्पन्न होता है । भव शब्द से यहाँ कान, रूप और आरूप्य नाम वाली तीन धातुएँ कही जाती हैं । काम धातु नरकादि स्थानवाली है। रूप धातु ध्यानरूप है । आरूप्य धातु शुद्ध चित्त सन्तति रूप है । जाति-परलोक में नये शरीर आदि का उत्पन्न होना जाति है । आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपूर्व स्कन्ध के प्रादुर्भाव को जाति कहा है । __ जरा-शरीर स्कन्ध का पक जाना जरा है। प्रमाचन्द्र के शब्दों में जतिस्कन्ध का परिपाक जरा है। ___मरण --शरीर स्कन्ध का विनाश मरण है । प्रभाचन्द्र के शब्दों में जाति स्कन्ध का प्रध्वंस होना मरण है। समीक्षा अविद्या आदि बारह अङ्गों का ही कथन ठीक नहीं है-प्रतीत्यसमुत्पाद में अविद्या आदि बारह अङ्ग जो कि मुमुक्षुओं को उपयोगी प्रदर्शित किए गये हैं, इतने ही होते हैं, यह निश्चय करना सम्भव नहीं है। जगत् की विचित्र अवस्थाएँ अनन्त रूप में व्याप्त हैं । मुमुक्षु केवल बारह अङ्गों का ही उपयोग नहीं करते हैं। मिथ्या ज्ञान जिसका लक्षण है, ऐसी अविद्या के समान विपरीत श्रद्धा और आचरणस्वरूप मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र संसार के हेतु होने के कारण हेय हैं और सम्यग्ज्ञानादि मोक्ष के हेतु होने से उपादेय हैं। इनका अन्तर्भाव अविद्या में ही होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । अविद्या से अत्यन्त विलक्षण होने से अविद्या में उनका अन्तर्भाव असम्भव है । जो जिससे अत्यन्त विलक्षण होता है, वह उसमें अन्तर्भूत नहीं होता है। जैसे-जल में अग्नि । मिथ्यादर्शनादिक अविद्या से अत्यन्त विलक्षण हैं । अविद्या में इनका अन्तर्भाव करने पर गिनाये हुए बारह अङ्गों का उपदेश ठीक नहीं है अथवा अविद्या में अन्तर्भाव करने पर आपकी ही हानि है । सम्पूर्ण का चार आर्य सत्यों में ही अन्तर्भाव होने से उसका उपदेश ही मुमुक्षुओं के लिए ठीक है। अविद्या का जो 'क्षणिक' इत्यादि लक्षण कहा गया है, वह अयुक्त है-क्षणिकादि ज्ञान अविद्या रूप हैं। अतत्त्व में तत्त्व की जानकारी होना अविद्या है, सर्वथा क्षणिकपना और १. तत्वार्थवात्तिक १११।४६ ।। २. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९२ । ३. तत्त्वार्थवात्तिक ११११४६ । ४. न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९२ । ५. तत्त्वार्थवार्तिक १११।४६ । ६. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९२ । ७. तत्त्वार्थवात्तिक २११४६ ।। ८. न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९२ । ९. न्याय कुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९२-३९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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