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वैभाषिक-मत-समीक्षा लक्षण वाला स्कन्धचतुष्टय नामरूप कहा है । रूप स्कन्ध पांच इन्द्रिय, पाँच इन्द्रियों के अर्थ और अविज्ञप्ति के भेद से ग्यारह प्रकार का है । प्राणियों के शरीर की उपादानभूत शुभ, अशुभ और अनुमय आचरण से उत्पन्न अविज्ञप्ति है, जो आवरण नाम वाली है, वह अयोगियों के प्रत्यक्ष न होने से अविज्ञप्ति इस सार्थक नाम से कही जाती है। उसके अर्थ पृथिव्यादि भूत अनुग्रह और सन्ताप के रूप में होते हैं और हो जाते हैं। आकाश छिद्र है, वह प्रकाश और अन्धकार के परमाणुओं से भिन्न नहीं है, अतः उसकी पृथक् गणना नहीं की गयी है। वे 'पृथ्वी धातु' नाम से दूसरी संज्ञाओं को भी प्राप्त होती हैं, जिस प्रकार ताम्रादि स्कन्ध उत्पत्ति की अपेक्षा ताम्रादि धातु दूसरी संज्ञाओं को प्राप्त करती है। , षडायतन-नामरूप से ही चक्षु आदि पाँच इन्द्रियाँ और मन ये षडायतन होते हैं, अतः षडायतन को नामरूप' प्रत्यय कहा है । आगमन को जो विस्तृत करते हैं वे आयतन हैं ।
स्पर्श - विषय, इन्द्रिय और विज्ञान के सन्निपात को स्पर्श कहते हैं। छह आयतन द्वारों का विषयाभिमुख होकर प्रथम ज्ञानतन्तुओं को जाग्रत करना स्पर्श है। आचार्य प्रभाचन्द्र के अनुसार 'चक्षु से रूप को देखता हूँ इस प्रकार विषय, इन्द्रिय और विज्ञान का समूह स्पर्श है।
वेदना-स्पर्श का अनुभव वेदना है। जिस जाति का स्पर्श होता है, उस जाति की वेदना होती है। अतः कहा जाता है—स्पर्श के कारण वेदना होती है | सुख, दुःख और असुखदुःख अनुभव वाली वेदना तीन प्रकार की होती है ।
तृष्णा-वेदनारूप अध्यवसान वाली तृष्णा है। उन वेदनाविशेषों का जो अभिनन्दन करती है, आस्वादन करती है, पान करती है, वह वेदनारूप कारणवाली तृष्णा है । न्यायकुमुदचन्द्र में लोभ को तृष्णा कहा है।
उपादान-तृष्णा की वृद्धि से उपादान होता है। यह इच्छा होती है कि मेरी यह प्रिया मेरे साथ सदा बनी रहे, मुझमें सानुराग रहे और इसीलिए तृष्णातुर व्यक्ति उपादान करता है । न्यायकुमुदचन्द्र में भी तृष्णा की विपुलता को उपादान कहा है।
१. न्या० कु० च० प्र० भाग पृ० ३९१ । २. तत्त्वार्थवात्तिक १३१२४६ न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९२ । ३. तत्त्वार्थवात्तिक १२११४६ । ४. न्यायकुमुदचन्द्र (प्र० भाग) पृ० ३९२ । ५. स्पर्शानुभवो वेदना । यज्जातीयः स्पर्शः भवति तज्जातीया वेदना प्रवर्तत इतीदमुच्यते स्पर्शप्रत्यया वेदनेति-तत्त्वार्थवात्तिक १२११४६ स्पर्श सति अनुभवः वेदना-न्याय
कुमुदचन्द्र प्र• भाग पृ० ३९२ । ६. न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९१ । ७. तत्त्वार्थवात्तिक १११२४६ । ८. 'लोभः तृष्णा' न्यायकुमुदचन्द्र (प्र० भाग) पृ० ३९२ । ९. तत्त्वार्थवात्तिक १।११४६ । १०. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९२ ।
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