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________________ 20 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 होते हैं । पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय को रूप कहते हैं। इन नाम रूप के समुदाय लक्षण को नामरूप कहते हैं। उन नामरूप के सिद्ध होने पर चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन, रसना और मन लक्षण छह आयतन होते हैं, जो कि आत्मा के करने योग्य क्रिया की प्रवृत्ति के हेतुक हैं। उनकी उत्पत्ति होने पर उन हेतुक छह स्पर्शकाय, विषयेन्द्रिय, विज्ञान-समूह लक्षण उत्पन्न होते हैं। जैसे 'रूपं चक्षुषा पश्यामि' इत्यादि ये विषय कहलाते हैं। उन विषयों के होने पर स्पर्श अनुभव लक्षण वेदना होती है। उस वेदना के सद्भाव में विषयों की आकांक्षा रूप तृष्णा उत्पन्न होती है। उसके होने पर तृष्णा की विपुलतालक्षण उपादान उत्पन्न होता है अर्थात् उन पदार्थों को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्ति होती है। प्रवृत्ति के होने पर पुनर्भव को उत्पन्न करने रूप कर्म लक्षण भव होता है । उसके होने पर अपूर्वस्कन्ध के प्रादुर्भाव लक्षण जाति होती है, पुनः उस जाति से स्कन्ध के परिपाक और प्रध्वंस लक्षण जरा और मरण होते हैं। आचार्यों ने प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह अंगों का पृथक्-पृथक् लक्षण इस प्रकार किया है अविद्या--अनित्य, अनात्मक, अशुचि और दुःखरूप सभी पदार्थों को नित्य, सात्मक, शुचि और सुखरूप मानना अविद्या है । संस्कार-अविद्या से रागादि संस्कार उत्पन्न होते हैं। संस्कार तीन प्रकार के हैं१. पुण्योपग (शुभ), २. अपुण्योपग (अशुभ), ३. आनेज्योपग (अनुभय रूप)। विज्ञान-वस्तु की जानकारी विज्ञान है । इन संस्कारों के कारण वस्तु में इष्ट अनिष्ट प्रतिविज्ञप्ति होती है, इसीलिए संस्कार विज्ञान में प्रत्यय अर्थात् कारण माना जाता है। पांच इन्द्रिय और स्मृति के विकल्पभेद से विज्ञान छह प्रकार का है। नामरूप-विज्ञान से नाम अर्थात् चार अरूपी स्कन्ध-वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान तथा रूप अर्थात् रूपस्कन्ध-पृथिवी, जल, अग्नि और वायु उत्पन्न होते हैं । इस पंचस्कन्ध को नामरूप कहते हैं । विज्ञान से ही नाम और रूप को नामरूप संज्ञाएँ मिलती हैं, अतः इन्हें विज्ञानसम्भूत कहा जाता है । आचार्य प्रभाचन्द्र ने रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार १. विद्यानन्द : अष्ट सहम्री पृ० २६४-२६५ । २. अविद्या विपर्ययात्मिका, सर्वभावेष्वनित्याऽनात्माशुचिदुःखेषु नित्यसात्मक शुचिसुखाभिमानरूपा-तत्त्वार्थवात्तिक १।१।४६ । क्षणिकनिरात्मकअशुचि दुःखरूपेषु भावेषु तद्विप रीतज्ञानम् अविद्या-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९१ । ३. तत्प्रत्ययाः संस्कारा इत्यादिवचनं केषाञ्चित् ! के पुनस्ते संस्काराः रागादयः । ते च त्रिधा पुण्यापुण्यानेज्यसंरुकाराः, यत् इदमुच्यते अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः-तत्त्वार्थवात्तिक १।१४६ संस्काराः पुण्य-अपुण्य अनुभयप्रकाराः शुभअशुभमिश्राचरणहेतवः अनेकप्रकारा रागादयः-न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९१ । ४. अकलङ्कदेव : तत्त्वार्थवात्तिक १।१।४६ । ५. न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग पृ० ३९१ । ६. तत्त्वार्थवात्तिक ११११४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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