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________________ वैभाषिक-मत-समीक्षा ( जैन ग्रन्थों के आधार पर ) डॉ० रमेशचन्द्र जैन वैभाषिक मत का परिचय-वैभाषिकों को आर्यसमितीय भी कहते हैं। उनका मत इस प्रकार है-वस्तु चतुःक्षणिक-चार क्षण पर्यन्त है—जन्म उसे उत्पन्न करता है, स्थिति उसका स्थापन करती है, जरा उसे जीर्ण करती है तथा विनाश उसका नाश कर देता है । आत्मा भी इसी प्रकार चतुःक्षणिक है। आत्मा का दूसरा नाम पुद्गल है। अर्थ के समान काल में रहने वाला एक सामग्री से ही उत्पन्न होने वाला निराकार ज्ञान प्रमाण है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने वैभाषिक शब्द की व्युत्पत्ति दी है, तदनुसार विभाषा को-सद्धर्मप्रतिपादक ग्रन्थविशेष को जो पढ़ते हैं, वे वैभाषिक कहलाते हैं। ये प्रतीत्यसमुत्पाद को स्वीकार कर विश्व के वैचित्र्य को कहते हैं, प्रतीत्य-हेतु प्रत्ययों का आश्रय लेकर एक दूसरे को हेतु बनाकर उस सामग्री का आश्रय लेकर हेतु-प्रत्यय भाव के द्वारा जिसमें संघातों से प्रधान ईश्वरादि कारकों से निरपेक्ष संघात उत्पन्न होते हैं, वह प्रतीत्यसमुत्पाद है। हेतु-फल (कारण कार्य) भाव से उसके बारह अङ्ग व्यवस्थित हैं। जैसे कि अविद्या के कारण संस्कार, संस्कार के कारण विज्ञान, विज्ञान के कारण नामरूप, नामरूप के कारण षडायतन, षडायतन के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति तथा जाति के कारण मरण होता है। ___आचार्य विद्यानन्द ने उपर्युक्त बारह अङ्गों का विश्लेषण इस प्रकार किया है—क्षणिक, निरात्मक, अशुचि, दुःखों में उससे विपरीत लक्षण नित्य, सात्मक, शुचि और सुख लक्षण अविद्या का उदय होने पर किसी भी ज्ञेय में उस निमित्तक संस्कार होते हैं, जो कि पुण्य, पाप और आनेज्य के भेद से तीन प्रकार के हैं । वे शुभ, अशुभ और अनुमय विषयक हैं, वे अवश्य ही होते हैं और उनके होने पर वस्तु का विज्ञप्तिलक्षण विकल्पात्मक विज्ञान उत्पन्न होता ही है। उसके होने पर विज्ञान से उत्पन्न रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, लक्षण नामचतुष्टय १. तत्रार्यसमितीयापरनामकवैभाषिकमतमदः चतुःक्षणिकं वस्तु । जातिर्जनयति । स्थितिः स्थापयति । जरा जर्जरयति । विनाशो विनाशयति । तथात्मापि तथाविध एव, पुद्गलश्वात्मावभिधीयते । निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्येकसामग्र्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणमिति । हरिभद्रः षड्दर्शन समुच्चय पृ० ७२-७३ । २. विभाषा सद्धर्मप्रतिपादक ग्रन्थविशेषं ये अधीयते ते वैभाषिका:-न्यायकुमुदचन्द्र (प्र० भाग) पृ० ३९० ।। विभाषया दीव्यन्ति चरन्ति वा वैभाषिकाः, विभाषां वा विदन्ति वैभाषिका:- स्फुटार्थ अभिधर्मकोश व्याख्या पृ० १२ । ३. न्यायकुमुदचन्द्र (प्र० भाग) पृ० ३९०, अष्टसहस्री पृ० २६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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