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स्वयंभूपूर्व अपभ्रंश-कविता वह श्रेष्ठ कुमारी कन्या-रूपी फल से वंचित है। पद की पूर्ति करने वाले पुरुष उस पुत्र के जन्म लेने से क्या कि जिसने अपने यश से गुफा, घाटी और विवर को भर कर नहीं। छोड़ा। आँगन में सोती हुई गोरी पर एक कवि कौं कल्पना है
___ गोरी अंगणे सुप्पंति दिट्ठा।
चंदहो अप्पणी जोण्ह विउच्छिट्ठा ॥ ६।४२।१ ऑगन में सोती हुई गोरी ऐसी दिखाई दी, जैसे चंद्र ने अपनी चाँदनी को वहाँ छिटक दिया हो। एकमक्त जिनेंद्र देव से कहता है
लग्न अणेअ असड्ढलु तुइ चलणइ पणउ ।
जिम जाणहि तिम पालहि किंकर अप्पणउ ॥ ६।८१ तुम्हारे चरणों में प्रणत कई असाधारण लोग लगे हुए हैं, जैसा तुम जानो वैसा पालन करो अपने इस किंकर को।। परस्त्री प्रेम के बारे में एक कवि कहता है--
हा हिअअ किं विसूरसु रूअं दळूण परकलत्ताण ।
पावेण ठावरि लिप्पसि पावं पाविहसि ते ण पाविहसि ॥ हे हृदय परस्त्रियों के रूप को देखकर क्यों दुःखी होते हो, तुम केवल पाप से लिप्त होते हो, तुम पाप को प्राप्त होगे, उसे प्राप्त नहीं करोगे। निपुण कवि के अनुसार, पुत्र से बढ़कर संसार में दूसरा दुश्मन नहीं
जाओ इरइ कलत्रं वडं ढतो भोअणं हरइ।
अत्थं हरइ समत्थो पुत्रसमो वेरिओणत्थि ।। पुत्र उत्पन्न होकर स्त्री का हरण करता है, बढ़ता हुआ, भोजन का हरण करता है, समर्थ होने पर धन का अपहरण करता है, पुत्र के समान बैरी नहीं है । संसार में चुपचाप उपकार करनेवाले लोग कम हैं
ते विरला सप्पुरुसा जे अभडंता घडंति कज्जालावे।
थोअच्चिअं च ते दुमा जे अमुणिअ-कुसुमणिग्गमा देति फलं ॥ ५।६ ऐसे लोग विरल हैं कि जो बिना कहे काम कर देते हैं, वे पेड़ बहुत ही थोड़े हैं, जो अपने पुणोद्गम को नहीं जताते हुए फल प्रदान करते हैं ।
भोगी कवि ने गांव में रहनेवाली ऐसी नवबधू की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है कि जिसका पति बूढ़ा है
पउर जुवाणो गामो महुमासो जोव्वणं पई ठेरो। जुण्णसुरा-साहीणा असइ मा होउ कि मरउ ।। ५।१
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