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16 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
"पिउपरोक्खहि भुजग चमकति चंदेण उज्झोलउ किउ .. ठिउ णिअत्त तेत्थु जम जाणि उ । कज्ज णिप्पच्छिम उअह ।
कज्ज आले लोअहिं मुणिज्जइ।" ४।९।३ इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि गोविन्द भी कृष्णकाव्य के समर्थ प्रबन्ध-कवि हैं, जो स्वयंभू से पहले हुए। फुटकर कवियों के अवतरणों का विषय विविध है । आर्यदेव का उद्धरण है
काईं करउँ माए पिउ ण गणइ लग्गी पाए ।
मण्णु धरते हो जाइ कठिण उत्तरंग भणाइ । हे माँ, क्या करूँ पैरों पर लगने को भी वह नहीं गिनता ? क्रोध करने पर वह चला जाता है, पार पाना कठिन है ? एक कुलटा अपनी कन्या को यह सीरप देती है--
जे ते के वि पुत्तिए देंति पई तेहिं करेज्जसु रज्ज। जो सो कोवि सुइउ वि ढेण्ढणओ।
तहो सिरें णिवडउ वज्ज । ३०११ वे जो कोई भी हों, हे पुत्री, तुम्हें देते हैं (धन) उनके साथ तूं राज्य कर, जो कोई भी सुभग [यदि गरीब है] तो उसके सिर पर वज्र गिरे।।
माउरदेव (मातृदेव) का कहना है कि जीवन में भटकते हुए, कमी सच्चा मित्र मिल जाता है, जो सुख-दुःख में साथ देता है
लद्धउ मित्त भंतेण रअणाअरु चंदेण ।
जो झिज्जते झिज्जइ वि तह भरइ भरतेण ॥ भ्रमण करते हुए चन्द्रमा ने रत्नाकर को मित्र के रूप में पा लिया, जो (समुद्र) चंद्रमा के क्षीण होने पर क्षीण होता है, और भरने पर भर जाता है ।
एक अज्ञात कवि का कहना है कि व्यक्तित्व की सार्थकता पुरुषार्थ में है, यह व्यक्तित्व सामन्त-युग का व्यक्तित्व है
जेण जाएँ रिउ ण कंपंति, सुअणा वि णंदंति णवि । दुज्जणा वि ण मुअंति चिंतए । तें जाएँ कँवणु गुणु वर-कुमारि कण्णइल वंचिउ । कि तणऍण तेण जाएण पअपूरण पुरिसेण ।।
जासु ण कंदरि दरि विवर भरि उव्वरि उ जसेण । जिसके उत्पन्न होने से शत्रु नहीं कांपते, सज्जन भी प्रसन्न नहीं होते, दुर्जन भी चिन्ता से नहीं मरते । उसके जन्म लेने से क्या फायदा ?
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