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________________ 15 स्वयंभूपूर्व अपभ्रंश-कविता गोविंद के निम्नलिखित अवतरण स्व० छ० में उपलब्ध हैं। ठामठामहि घास-संत? रतिहिं परिसंठिआ। रोमंथणवस-चलिअ गंडआ, दीसंति धवलुजल जोण्हा णिहाणाइं गोहणा ।। स्थान-स्थान पर घर्षण से भयभीत, रात्रियों में बैठी हुई जुगाली के कारण गंडस्थलों को चलाती हुई गाएं ऐसी दिखाई देती हैं, जैसे धवल उज्जवल ज्योत्स्ना के समूह हों। "सव्व गोविउ जइवि जोएइ हरि सुठु वि आअरेण देइ दिदि जहिं कहिं वि राही को सक्कइ संवरेवि डड्ढणअण, णेहें पलोट्टउ' ७।१०।२ । यद्यपि हरि सब गोपियों को अत्यंत आदर से देखते हैं, परंतु दृष्टि वही देते हैं, जहाँ राधा है; स्नेह से सराबोर दग्ध नयनों को कौन रोक सकता है ? हरि के वियोग में संताप से तप्त गोपी कमलिनी का पत्ता तोड़कर अपने स्तनों के विस्तार पर रखती हैं, उस अनजान (मुग्धा) ने फल पा लिया। अब प्रिया को जो अच्छा लगे वह करे "देइ पाली श्रणह पब्भारें तोडे प्पिणु णलिणिदलु हरि विओए संतावें तत्ती फलु अण्णहि पाविउ, करो दइअ जं किंपि रुच्चइ" ४।११।१ । इन अवतरणों का राधाकृष्ण की प्रणय-कथा से सम्बन्ध है। निम्नलिखित प्रसंग कालियामथन का है । इसमें यशोदा का उद्वेग अभिव्यक्त हुआ है :-- 'एहु विसमउ सुट्ठ आएसु पाणंतिउ मानुस हो दिदिविसु सप्पु कालियउ कंसु वि मारेइ धुउ कहिं गम्मउ काइं किज्जउ १०।१।" यह अत्यन्त विषम आदेश है, मनुष्य के प्राणों का अंत करने वाला । कालिया नाग दृष्टिविष नाग है। निश्चय ही वह, और कंस भी मारता है, कहाँ जाऊँ क्या करूँ ? गोविंद के दो एक अवतरणों का विषय सामान्य नीति-कथन है । जैसे “कमलकुमुअह एक्क-उप्पत्ति, ससि तो वि कुमुआ अरइ । देइ सोक्खु कमलइ दिवाअरु । पाविज्जइ अवसफलु जेण जस्स पासे ठवेइउ" ११.७. । कमल और कुमुद की एक जगह उत्पत्ति है, तब भी चंद्रमा कुमुद का आदर करता है, दिवाकर कमल को सुख देता है। जो जिसके साथ स्थापित होता है, उसे उसका फल अवश्य मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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